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________________ श्रुतके दो उपयोग ३०५ वह प्रश्नान्तर या तो पृथक्-पृथक् अस्तित्व नास्तित्व धर्मों के विषयमें हो सकता है या समस्तके विषय में हो सकता है ? प्रथम पक्षमें यदि प्रधानरूपसे अस्तित्व या नास्तित्वके विषयमें प्रश्न है तो प्रथम और द्वितीय (भंगसम्बन्धी) प्रश्नमें उनका समावेश हो जाता है। और यदि सत्त्वधर्मको गौणताको लेकर प्रश्न है तो दूसरे ( भंगसम्बन्धी ) प्रश्नमें ओर यदि असत्त्वधर्मकी गौणताको लेकर प्रश्न है तो प्रथम प्रश्नमें उसका समावेश हो जाता है। ___ यदि समस्त अस्तित्व नास्तित्वविषयक प्रश्नान्तर है तो क्रमसे होनेपर तीसरे. में, युगपद् होनेपर चौथेमें, प्रथम और चतुर्थके समुदायविषयक होनेपर पांचवेंमें दूसरे और चतुर्थके समुदायविषयक होनेपर छठेमें और तीसरे तथा चतुर्थके समुदायविषयक होनेपर सातवें में अन्तर्भाव हो जाता है, इस तरह सातमें ही सब प्रश्नान्तरोंका समावेश हो जाता है। प्रथम और तीसरेके समुदायविषयक प्रश्न तो पुनरुक्त हो जाता है; क्योंकि प्रथम प्रश्न तीसरेका ही भाग है । इसी तरह प्रथमको चतुर्थ आदिके साथ, दूसरेको तृतीय आदिके साथ, तीसरेको चतुर्थ आदिके साथ, चतुर्थको पंचम आदिके साथ, पाँचवेंको छठे आदिके साथ और छठेको सांतवेंके साथ समस्त करके जो प्रश्नान्तर होते हैं वे सब पुनरुक्त है। अत: तीसरे, चौथे, पाँचवें, छठे और सातवेंको मिलाकर प्रश्नान्तर सम्भव नहीं हैं। इसलिए सप्तभंगोके स्थानमें सात सो भंगीकी किंचित् भी सम्भावना नहीं है। शंका-तब तो तीसरे आदि प्रश्न भो पुनरुक्त हैं ? समाधान-नहीं, तीसरे में दोनों धर्मोको क्रमसे प्रधान रूपसे पूछा गया है। प्रथम और दूसरेमें इस प्रकारसे उन्हें नहीं पूछा गया। उनमें तो प्रधान रूपसे केवल एक सत्त्व धर्मको और केवल एक असत्त्व धर्मको ही पूछा गया है तथा चौथेमें दोनोंको युगपद् प्रधानभावसे पूछा गया है। पांचवेंमें सत्वके साथ अबक्तव्यको प्रधान रूपसे पूछा गया है। छठेमें नास्तित्व के साथ अवक्तव्यको प्रधानरूपसे पूछा गया है और सातवेंमें क्रम और युगपद् सत्त्व और असत्त्वको प्रधान रूपसे पूछा गया है । अतः पुनरुक्तता नहीं है । शंका-इस तरह तो तीसरेको पहलेके साथ मिलानेपर दो अस्तित्व धर्मों और एक नास्तित्व धर्मकी प्रधानतासे, तीसरेको दूसरेके साथ मिलानेपर दो नास्तित्व धर्मोकी और एक अस्तित्व धर्मको प्रधानतासे प्रश्नान्तर हो सकते हैं; क्योंकि उक्त सात प्रश्नोंमें इस प्रकारसे नहीं पूछा गया है। इसी तरह चौथेको पांचवेंके साथ मिलानेपर दो अवक्तव्य और एक अस्तित्वको, चौथेको छठेके साथ ३९ Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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