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जैन न्याय
शंका-एक जीवादि वस्तुमें विधिरूप और निषेधरूप अनन्त धर्म रहते हैं अतः उनकी अपेक्षा अनन्त भंगी भी हो सकती है ?
समाधान--एक वस्तुमें अनन्तधर्म रहते हैं और एक-एक धर्म के विधि-निषेध. को अपेक्षा सप्तभंगी होती है । इस तरह एक वस्तुमें अनन्त सप्तभंगो होनेमें कोई हानि नहीं है।
'शंका-सात ही प्रकार क्यों हैं ?
समाधान--एक धर्मके विधि-निषेधकी विवक्षासे सात ही भंग होते हैं; क्योंकि प्रश्नके भी सात ही प्रकार होते हैं। और प्रश्नोंके अनुमार ही सप्तभंगी होती है।
शंका---प्रश्नके सात ही प्रकार क्यों होते हैं ? समाधान--क्योंकि जिज्ञासा सात प्रकारकी होती है । शंका--जिज्ञासाके भी सात ही प्रकार क्यों होते हैं ? समाधान--क्योंकि संशयके सात प्रकार होते हैं। शंका--सात प्रकारके ही संशय क्यों हैं ?
समाधान--क्योंकि संशयको विषयभूत वस्तुके धर्म सात प्रकारके होते हैं। जैसे किसी वस्तुमें अस्तित्वविषयक जिज्ञासाके होनेपर प्रश्नको प्रवृत्ति होती है वैसे ही उस अस्तित्वके अविनाभावी नास्तित्व आदि धर्मोकी जिज्ञासा होने पर भी प्रश्नकी प्रवृत्ति होती है। अतः जिज्ञासाके सात प्रकार होनेसे प्रश्नके सात प्रकार होते हैं और प्रश्नके सात प्रकार होनेसे वचनोंके सात प्रकार होते हैं। अत: 'प्रश्नवश एक वस्तुमें सप्तभंगी होती है' यह कथन उचित ही है; क्योंकि सातसे अतिरिक्त आठवें भंगके निमित्तसे हो सकनेवाला आठवां प्रश्न सम्भव नहीं है और उसके सम्भव न होनेका कारण यह है कि उस विषयक जिज्ञासा सम्भव नहीं है, और उस विषयक जिज्ञासा इसलिए सम्भव नहीं है; क्योंकि उस विषयक कोई विवाद सम्भव नहीं हैं । और विवाद इसलिए सम्भव नहीं है, क्योंकि वस्तुमें विधि-प्रतिषेधकी कल्पनाके द्वारा कोई अन्य अविरुद्ध धर्मान्तर सम्भव नहीं है। ऐसी स्थितिमें जब वस्तुमें कोई अन्य अविरुद्ध धर्मान्तर सम्भव नहीं है तो प्रश्नान्तरकी प्रवृत्ति सम्भव नहीं है और उसके अभावमें यदि कुछ असम्बद्ध प्रलाप किया भी जाये तो वह उत्तर देनेके योग्य नहीं हो सकता।
१. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, पृ० १३२ ।
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