________________
जैन न्याय
३०२
है । क्योंकि ऐसा होनेपर शब्दसे निषेधका ज्ञान नहीं हो सकेगा । शायद कहा जाये कि शब्द गौणरूपसे निषेधको भी कहता है, किन्तु ऐसा कहना भी निःसार है; क्योंकि सर्वत्र सर्वदा और सर्वथा प्रधान रूपसे जिसका कथन नहीं किया जाता उसका गौणरूपसे कथन करना सम्भव नहीं है । इसी तरह प्रधान रूपसे प्रतिषेधको ही शब्द कहता है, ऐसा मत भी इसीसे निरस्त हो जाता है । शब्द क्रमसे विधि और निषेध दोनोंका ही प्रधान रूपसे कथन करता है, ऐसा कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि शब्दसे प्रधान रूपसे अकेले विधि और अकेले निषेधको भो प्रतीति होती है ।
शब्द एक साथ विधि - निषेधरूप अर्थका वाचक नहीं ही है, ऐसा कहना भी मिथ्या है क्योंकि ऐसा होनेपर उस विधि - निषेधरूप अर्थको 'अवक्तव्य' शब्दसे भी नहीं कहा जा सकेगा । शब्द विधिरूप अर्थका वाचक और विधिनिषेधरूप अर्थका एक साथ अवाचक ही है ऐसा एकान्त भी युक्त नहीं है; क्योंकि शब्द एक साथ निषेधरूप अर्थका वाचक और विधिनिषेधरूप अर्थका अवाचक प्रतीत होता है । शब्द एक साथ निषेधरूप अर्थका वाचक और विधिनिषेधरूप अर्थका अवाचक ही है, ऐसा कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि शब्द विधिरूप अर्थका वाचक और एक साथ विधिनिषेधरूप अर्थका अवाचक भी प्रतीतिसिद्ध है । शब्द क्रम से विधिनिषेधरूप अर्थका वाचक और युगपद् विधिनिषेत्ररूप अर्थका अवाचक ही है। ऐसा कहना भो प्रतीति विरुद्ध है; क्योंकि विधिप्रधान आदे रूपसे भी शब्दार्थ की प्रतीति होती हैं ।
इस प्रकार विधि और निषेधके विकल्पसे अर्थ में शब्दकी प्रवृत्ति सात प्रकारसे होती है । उसे ही सप्तभंगी कहते हैं । उसका लक्षण इस प्रकार है"प्रश्नवशादेकस्मिन् वस्तुन्यविरोधेन विधिप्रतिषेधकल्पना सप्तभंगी ।" — तत्त्वार्थराजवार्तिक, पृ० १-६, पृ० ३३ ।
अर्थात् — एक वस्तु में प्रश्नके वशसे प्रत्यक्ष और अनुमान से अविरुद्ध विधि और निषेधको कल्पनाको सप्तभंगी कहते हैं ।
विधि और प्रतिपेधको कल्पनामूलक सात भंग इस प्रकार हैं - १. विधिकल्पना, २ . प्रतिषेधकल्पना, ३. क्रमसे विधिप्रतिषेधकल्पना, ४. युगपद् विधिप्रतिषेध कल्पना, विविकल्पना और युगपद् विधिप्रतिषेवकल्पना, ६. प्रति
१. अष्टसहस्री, पृ० १२५ ।
Jain Education International
".
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org