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जैन न्याय
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"जो वादी वाक्यके साथ 'स्यात् ' पदका प्रयोग करना पसन्द नहीं करते, उन्हें सर्वथा एकान्तवादको मानना पड़ेगा और उसके माननेमें प्रमाणसे विरोध आता है । अतः उस विरोधको दूर करनेके लिए समस्त वाक्यों में 'स्यात्' पदका प्रयोग करना चाहिए । इसी तरह वाक्यमें एवकार ( ही ) का प्रयोग न करनेपर भी सर्वथा एकान्तको मानना पड़ेगा; क्योंकि उस स्थिति में अनेकान्तका निराकरण अवश्यंभावी है । जैसे -- ' उपयोग लक्षण जीवका ही है' इस वाक्य में एवकार ( ही ) होने से यह सिद्ध होता है कि उपयोग लक्षण अन्य किसीका न होकर जीवका ही है । अतः यदि इसमें से 'हो' को निकाल दिया जाये तो उपयोग अजीवका भी लक्षण हो सकता है । और ऐसा होनेसे बाह्य अर्थ की व्यवस्थाका लोप हो जायेगा ।
शंका- वाक्य के साथ एवकारका ( ही ) प्रयोग हो या न हो, किन्तु उसकी प्रतीति होना तो उचित है; क्योंकि एवकारके प्रयोगसे अयोगव्यवच्छेद, अन्ययोगव्यवच्छेद और अत्यन्तायोगव्यवच्छेद नामक फल पाया जाता है । जैसे 'चैत्र धनुर्धर ही है' इसमें अयोगव्यवच्छेद है । क्योंकि लोकमें चैत्र धनुर्धर प्रसिद्ध नहीं है | अतः चैत्र 'धर्नुधर नहीं है' इस आशंकाको दूर करके उसे धनुर्धर बतानेके लिए 'चैत्र 'धनुर्धर ही है' इस वाक्यका उपयोग किया जाता है । 'पार्थ ही धनुर्धर है' इस वाक्य में अन्ययोगव्यवच्छेद है। पार्थ ( अर्जुन ) के धनुर्धर न होनेकी शंका किसीको भी नहीं है; क्योंकि धनुर्धर के रूपमें ही उसकी सर्वत्र ख्याति है, किन्तु पार्थ में जो विशिष्ट प्रकारका धनुषधारीपना है वह जब अन्य पुरुषों में भी माना गया तो उसकी निवृत्तिके लिए 'पार्थ ही धनुर्धर है' इस प्रकारका वाक्यप्रयोग किया जाता है । इसी तरह 'नील कमल होता हो है' इस वाक्य में अत्यन्तायोगव्यवच्छेद है; क्योंकि 'कमल नीला नहीं होता' ऐसी आशंका होनेपर उसके व्यवच्छेद के लिए 'नील कमल होता हो है' इस प्रकारका वाक्यप्रयोग किया जाता है | इस तरह वाक्यके साथ एवकारका प्रयोग तो उचित है, किन्तु स्यात्कार - का प्रयोग तो निष्फल है उससे कोई लाभ प्रतीत नहीं होता ।
समाधान -- उक्त कथन ठीक नहीं है । स्यात्कार के बिना इष्टकी विधि और अनिष्टका निषेध नहीं बन सकता । जैसे, 'पार्थ ही धनुर्धर है' ऐसा कहनेपर सर्वत्र सर्वदा सभी अन्य पुरुषोंमें धनुर्धरत्वका अभाव प्रतीत होता है । और यह बात प्रत्यक्ष विरुद्ध है । शायद कहा जाये कि जिस प्रकारका धनुर्धरत्व पार्थमें
१, न्या० कु० च०, पृष्ठ ६६२ । सिद्धिविनिश्चय - पृ० ६४७-६५३ |
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