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________________ श्रुतके दो उपयोग ये सब स्याद्वादके पर्याय शब्द हैं। 'स्याद्वादके बिना हेय और उपादेयको व्यवस्था नहीं बनती। अकलंकदेवने संक्षेपमें 'अनेकान्तात्मक अर्थके कथनको स्याद्वाद" कहा है तथा, सत्, असत्, नित्य, अनित्य आदि सर्वथा एकान्तोंके निराकरणको अनेकान्त कहा है। अब प्रश्न यह है कि स्याद्वाद अनेकान्तात्मक अर्थका कथन कैसे करता है ? 'स्यात्' यह लिङ्लकारका क्रियारूप पद भी होता है और उसका अर्थ होता है-'होना चाहिए' । परन्तु यह वह नहीं है। यह तो निपात है। किन्तु निपातरूप स्यात् शब्दके भी संशय आदि अनेक अर्थ होते हैं। यहाँ वे सब अर्थ न लेकर केवल अनेकान्तरूप अर्थ हो लेना चाहिए । 'स्यात्' शब्द अनेकान्तका सूचक भी है, द्योतक भी है। वाक्यके साथ उसे सम्बद्ध कर देनेसे वह प्रकृत अर्थका पूरी तरहसे सूचन करता है; क्योंकि प्रायशः निपातोंका यही स्वभाव होता है। तथा निपात द्योतक भी होते हैं । अतः स्यात् शब्दके अनेकान्तका द्योतक होने में भो कोई दोष नहीं है। ___ कोई भी वाक्य केवलज्ञानकी तरह अपने वाच्यको एक साथ नहीं कहता। इसीसे उसके साथ वाच्यविशेषका सूचक स्यात् शब्द प्रयुक्त किया जाता है। ___इस प्रकार अनेकान्तके द्योतनके लिए सभी वाक्योंके साथ 'स्यात' शब्दका प्रयोग आवश्यक है। उसके विना अनेकान्तका प्रकाशन सम्भव नहीं है। शायद कहा जाये कि लोकिक जन तो सब वाक्योंके साथ स्यात् पदका प्रयोग करते नहीं देखे जाते । इसका उत्तर देते हुए अकलंकदेवने लिखा है-- "सोऽप्रयुक्तोऽपि सर्वत्र स्यात्कारोऽर्थात् प्रतीयते । विधौ निषेधेऽप्यन्यत्र कुशलश्चेत् प्रयोजकः ॥६३॥"--लघीयस्त्रय । ___ 'यदि शब्दोंका प्रयोग करनेवाला पुरुष कुशल हो तो स्यात्कार और एवकार. का प्रयोग न किये जानेपर भी विधिपरक, निषेधपरक तथा अन्य प्रकारके वाक्योंमें भी स्यात्कार और एवकारको प्रतीति स्वयं हो जाती है।' १. 'अनेकान्तात्मकार्थकथनं स्याद्वादः।-लघीयस्त्रय विवृति, न्यायकुमुदचन्द्र, पृ० ६८६। २. 'सदसन्नित्यानित्यादिसर्वथैकान्तप्रतिक्षेपलक्षणोऽनेकान्तः ।-अष्टशती, अष्टसहस्री, पृ० २८६। ३. स च तिङन्तप्रतिरूपको निपातः। तस्यानेकान्तविधिविचारादिषु बहुष्वर्थेषु संभवत्सु इह विवक्षावशात् अनेकान्तार्थो गृह्यते ।'-तत्त्वार्थवार्तिक, पृ० २५३ । ४. 'तत्र कचित्प्रयुज्यमानः स्याच्छब्दस्तद्विशेषणतया प्रकृतार्थतत्त्वमनवयवेन सूचयति, प्रायशो निपातानां तत्स्वभावत्वादेवकारादिवत् ।'-अष्टसहस्री, पृ० २८६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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