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जैन न्याय
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यहां यह बतलाने की आवश्यकता नहीं है कि समन्तभद्र स्वामीने श्रुतज्ञानका निर्देश 'स्याद्वाद' शब्द से किया है । इसीसे समन्तभद्रके उत्तरकालवर्ती 'न्यायावतार' नामक प्रकरणके रचयिताने उसका 'स्याद्वादश्रुत' रूपसे स्पष्ट निर्देश किया है । और उसे 'सम्पूर्ण अर्थों का निश्चय करानेवाला' कहा है ।
अब यह ज्ञातव्य है कि क्यों समन्तभद्रने तत्त्वज्ञानको 'स्याद्वादनय संस्कृत' बतलाकर श्रुतको 'स्याद्वाद' नामसे अभिहित किया ?
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हम पहले लिख आये हैं कि आचार्य पूज्यपादने प्रमाणके दो भेद स्त्रार्थ और परार्थ करके श्रुतज्ञानके सिवाय शेष ज्ञानोंको स्वार्थप्रमाण बतलाया है । तथा श्रुतको स्वार्थ भी बतलाया है और परार्थ भी बतलाया है । ज्ञानात्मक श्रुत स्वार्थप्रमाण है और वचनात्मक श्रुत परार्थप्रमाण है | श्रुतज्ञानमें वचन अथवा शब्दकी मुख्यता है यह भी पहले स्पष्ट कर दिया गया है। जब कोई ज्ञाता शब्दोंके द्वारा दूसरोंपर अपने ज्ञानको प्रकट करनेके लिए तत्पर होता है तो उसका वह शब्दोन्मुख ज्ञान स्वार्थश्रुत कहा जाता है और ज्ञाता जो वचन बोलता है वे वचन परार्थश्रुत कहे जाते हैं । श्रुतप्रमाणके ही भेद नय हैं ।
किन्तु जैसे ज्ञान सम्पूर्ण वस्तुको एक साथ जान सकता है वैसे शब्द सम्पूर्ण वस्तुको एक साथ नहीं कह सकता; क्योंकि वचनका व्यापार क्रमसे ही होता है । फिर जैनदर्शन वस्तुको अनेकान्तात्मक मानता है । अन्त कहते हैं अंश अथवा धर्मको | जैनदर्शनको दृष्टिमें प्रत्येक वस्तु अनेक धर्मात्मक अथवा अनेकधर्मवाली है । न वह सर्वथा सत् ही है और न सर्वथा असत् ही है, न वह सर्वथा नित्य ही है और न वह सर्वथा अनित्य ही है । किन्तु किसी अपेक्षासे वस्तु सत् है तो किसी अपेक्षासे असत् है, किसी अपेक्षासे नित्य है तो किसी अपेक्षासे अनित्य है । अत: सर्वथा सत्, सर्वथा असत्, सर्वथा नित्य, सर्वथा अनित्य इत्यादि एकान्तोंका निरसन करके वस्तुका कथंचित् सत् कथंचित् असत् कथंचित् नित्य, कथंचित् अनित्य आदि रूप होना अनेकान्त है । और अनेकान्तात्मक वस्तुके कथन करनेका नाम स्याद्वाद है । स्याद्वाद के बिना अनेकधर्मात्मक वस्तुका
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१. 'संपूर्णार्थविनिश्चायी स्याद्वादश्रुतमुच्यते ' ॥३०॥ ' - न्यायाव० ।
२. 'श्रुतं स्वार्थं भवति परार्थं च । ज्ञानात्मकं स्वार्थं वचनात्मकं परार्थं, तद्भेदा
नयाः ॥ - सर्वार्थ सूत्र १ - ६ ।
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३. 'सदसन्नित्यानित्यादि - सर्वथैकान्तप्रतिक्षेपलक्षणोऽनेकान्तः ।'
पृ० २८६ ।
४ ' अनेकान्तात्मकार्थकथनं स्याद्वाद: । ' - लघीय० विवृ०, न्या० कु० च०, पृ० ६८६ ।
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अष्टश०, अष्ट०,
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