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________________ श्रुतके दो उपयोग २९७ कथन नहीं किया जा सकता। दूसरे शब्दोंमें स्याद्वादके बिना श्रोताको वस्तुके अनेक धर्मोका ज्ञान नहीं कराया जा सकता। स्वामी समन्तभद्राचार्यने अपने आप्तमीमांसा नामक प्रकरणमें श्रुतके लिए स्यावाद शब्दका प्रयोग किया है । यथा "स्याद्वादकेवलज्ञाने सर्वतत्त्वप्रकाशने । भेदः साक्षादसाक्षाच्च वस्त्वन्यतमं भवेत् ॥१०॥" अर्थात्-स्याद्वाद ( श्रुत ) और केवलज्ञान ये दोनों समस्त तत्त्वोंका प्रकाशन करते हैं। इस दृष्टि से दोनोंमें कोई भेद नहीं है; क्योंकि जैसे आगम दूसरोंके लिए समस्त जीवादि तत्त्वोंका प्रतिपादन करता है वैसे ही केवली भी करता है। किन्तु इन दोनोंमें भेद यह है कि केवलज्ञान तत्त्वोंको प्रत्यक्षरूपसे जानता है और आगम परोक्षरूपसे । इस तरह केवलज्ञान साक्षात् प्रतिभासी है और स्याद्वाद (श्रतज्ञान ) असाक्षात् प्रतिभासी है। जो इन दोनों ज्ञानोंका अविषय है वह अवस्तु है। सिद्धसेन विरचित न्यायावतारमें तो स्पष्ट रूपसे स्याद्वाद थ तका निर्देश करते हए उसको सम्पूर्ण अर्थका निश्चय करनेवाला कहा है। यथा___ "सम्पूर्णार्थविनिश्चायी स्थाद्वादश्रुतमुच्यते ॥३०॥” । पहले लिख आये हैं कि आचार्य पूज्यपादने अपनी 'सर्वार्थ सिद्धि में प्रमाणके दो भेद स्वार्थ और परार्थ करके श्रुतज्ञानके सिवाय शेष ज्ञानोंको स्वार्थप्रमाण बतलाया है। तथा श्रुतको स्वार्थ भी बतलाया है और परार्थ भी बतलाया है । ज्ञानात्मक श्रत स्वार्थप्रमाण है और वचनात्मक श्रत परार्थप्रमाण है । श्रुतके ही भेद नय हैं। पूर्वाचार्योंके उक्त कथनोंको दृष्टिमें रखकर भट्टाकलंकदेवने श्रुतके दो उपयोग बतलाये हैं। यथा "उपयोगौ श्रुतस्य द्वौ स्याद्वादनयसंशितौ। स्याद्वादः सकलादेशो नयो विकलसंकथा ॥६२॥"-लघीयस्त्रय । १..'तत्र प्रमाणं द्विविधं स्वार्थ परार्थ च। तत्र स्वार्थप्रमाणं श्रुतवज्य॑म् । श्रुतं पुनः स्वार्थ भवति परार्थ च । ज्ञानात्मक स्वार्थ वचनात्मकं परार्थम् । तद्विकल्पा नयाः ॥' -सर्वार्थसि. १-६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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