SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 310
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रुतके दो उपयोग स्याद्वाद आचार्य 'समन्तभद्रने 'तत्त्वज्ञानको प्रमाण' बतलाकर उसे 'स्याद्वादनयसंस्कृत' बतलाया है। और आगे लिखा है कि 'स्याद्वाद और केवलज्ञान ये दोनों सर्वतत्त्वोंके प्रकाशक हैं। इन दोनोंमें केवल इतना ही अन्तर है कि एक परोक्ष है और दूसरा प्रत्यक्ष है। समन्तभद्रकी इस उक्तिका व्याख्यान करते हए अकलंकदेवने तथा विद्यानन्दने लिखा है कि स्याद्वाद और केवलज्ञानका एक साथ प्रयोग करते समय स्याद्वादको केवलज्ञानसे पहले रखकर आचार्य समन्तभद्रने यह दिखलाया है कि इन दोनों में से कोई एक ही पूज्य नहीं है, किन्तु दोनों ही पूज्य हैं क्योंकि दोनों परस्परमें एक-दूसरेके हेतु हैं । अर्थात् केवलज्ञानसे स्याद्वादरूप आगमकी उत्पत्ति होती है और स्याद्वादरूप आगमके अभ्याससे केवलज्ञानकी उत्पत्ति होती है। शायद कोई कहे कि इस तरह तो अन्योन्याश्रय दोष आता है; क्योंकि जब आगम हो तो उसके अभ्याससे केवलज्ञानकी उत्पत्ति हो और जब केवलज्ञान उत्पन्न हो तो केवलोके उपदेशसे आगमका निर्माण हो। किन्तु ऐसी आशंका उचित नहीं है; क्योंकि पूर्व सर्वज्ञके द्वारा प्रकाशित आगमसे आगे होनेवाले सर्वज्ञको केवलज्ञान उत्पन्न होता है । और उससे उत्तर कालमें आगमका प्रकाश होता है। इस तरह सर्वज्ञसे आगम और आगमसे सर्वज्ञ की परम्परा चलती रहती है। जैसे सर्वज्ञ जोव, अजीव आदि तत्त्वोंका प्रतिपादन करते हैं वैसे ही आगम भी दूसरोंके लिए सब तत्त्वोंका प्रतिपादन करता है। इसलिए सब ज्ञानियोंमें दो ज्ञानी ही विशिष्ट ज्ञानी कहे जाते हैं-एक भगवान् केवली और एक समस्त श्रुतमें पारंगत श्रुतकेवली । इन दोनोंमें केवल इतना ही भेद होता है कि केवलो सब द्रव्यों और उनकी सब पर्यायोंको प्रत्यक्ष जानते हैं । किन्तु श्रुतकेवली आगमके द्वारा ही जानता है । १. 'तत्त्वज्ञानं प्रमाणं ते युगपत्सर्वभासनम् । क्रमभावि च यज्शानं स्याद्वादनय संस्कृतम्' ॥१०१॥ -आप्तमी० । २. 'स्याद्वादकेवलज्ञाने सर्वतत्त्वप्रकाशने । भेदः साक्षादसाक्षाच्च गवस्त्वन्यतमं ___ भवेत् ॥१०५॥' -आप्तमी०। ३. अष्टस०, पृ० २८८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy