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परोक्षप्रमाण
यह कहनेको आवश्यकता नहीं है कि दिगम्बर परम्परामें, जिस अनक्षरात्मक श्रुतज्ञानको लिंगज कहा है, वह भो श्वेताम्बर परम्परामें शब्दज हो है, किन्तु वह वर्ण-पद-वाक्यात्मक शब्दसे उत्पन्न नहीं हुआ इसलिए उसे अनक्षरात्मक कहते हैं । दिगम्बर भी उसे इसीलिए अनक्षरात्मक कहते हैं कि वह वर्ण-पद. वाक्यात्मक शब्दसे उत्पन्न नहीं हुआ; क्योंकि वे भो वर्ण-पद-वाक्यात्मक शब्दसे उत्पन्न श्रु तज्ञानको अक्षरात्मक कहते हैं। किन्तु जो श्रु तज्ञान वर्ण-पद-वाक्यात्मक शब्दसे उत्पन्न नहीं हुआ, पर अनक्षररूप शब्दसे ही उत्पन्न हुआ है, उसे तो अनक्षरात्मक श्र तज्ञानमें ही शामिल करना होगा।
अब प्रश्न केवल उन श्रु तज्ञानोंका रह जाता है जो शब्दज नहीं है। श्वेताम्बर परम्पराके अनुसार ऐसा कोई श्रुतज्ञान ही नहीं है जो शब्दज न हो। तथा अकलंकदेवके अनुसार भो शब्दयोजना होनेसे ही ज्ञान श्र त. ज्ञान होता है। तत्त्वार्थवातिकमें भी श्रु तज्ञानका विषय बतलाते हुए अकलंकदेवने लिखा है--'श्रु त' भी शब्दलिंग है और केवल संख्यात है, जब कि द्रव्यपर्याय असंख्यात और अनन्त हैं। अतः श्रु तज्ञान उन सबको विशेषाकारसे विषय नहीं कर सकता। कहा भी है--अनभिलाप्य पदार्थों के अनन्तवें भागपदार्थ अभिलाप्य हैं। और अभिलाप्य पदार्थों का अनन्तवाँ भाग श्रु तमें निबद्ध होता है।'
अब प्रश्न यह होता है कि यदि श्रु तज्ञान शब्दज हो है तो एकेन्द्रिय आदि जीवोंके श्र तज्ञान कैसे होता है ? तया पंचेन्द्रियोंके श्रोत्रेन्द्रियके सिवा अन्य इन्द्रियजन्य मतिज्ञानपूर्वक श्रुतज्ञान कैसे हो सकेगा ?
दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओंमें एकेन्द्रिय आदि जीवोंके लब्ध्यक्षर नामका श्रु तज्ञान माना है, जिसका उल्लेख पहले कर आये हैं । यह श्र तज्ञान सदा सब जीवोंके उद्घाटित रहता है, कभी भी आवृत नहीं होता। श्वेताम्बर. परम्परामें यह लब्ब्यक्षर श्र तज्ञान अक्षरात्मक श्रु तज्ञान माना जाता है; क्योंकि उनके यहाँ लब्ध्यक्षर भी अक्षरका हो एक भेद है। परन्तु दिगम्बर परम्परामें इसे अनक्षरात्मक श्रु त माना जाता है। क्योंकि दिगम्बर-परम्परामें श्रु तज्ञानके अक्षर नामक भेदसे अक्षर श्रु तज्ञान आरम्भ होता है, इसीसे अक्षरके पूर्ववर्ती पर्याय और पर्याय समास नामक श्र तज्ञान अनक्षरात्मक श्रु तज्ञान कहे जाते हैं, और पर्याय श्रुतज्ञानका नाम ही लब्ध्यक्षर है। यह श्रु तज्ञानावरणका मात्र क्षयोपशम रूप १. 'श्रुतमपि शब्दलिङ्गम् । शब्दाश्च संख्येया एव, द्रव्यपर्यायाः पुनः असंख्येया
नन्तमेदाः, न ते सर्व विशेषाकारेण तैर्विषयीक्रियन्ते । उक्तं च"पण्णवणिज्जा भावा भणंतभागो दु अणभिलप्पाणं । पएणवणिज्जाणं पुण अणंतभागो सुदणिबद्धो ॥"-तत्त्वा० वा०, पृ० ६० ।
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