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________________ २९० जैन न्याय शंका--सम्पूर्ण श्र तज्ञानीके अक्षरका अनन्तवा भाग श्र तज्ञान कैसे हो सकता है ? उसको तो सम्पूर्ण श्रुतज्ञानाक्षर होना चाहिए । समाधान--आपका कहना ठीक है, किन्तु केवलाक्षरकी अपेक्षासे ही सम्पूर्ण श्रु तज्ञानीके अक्षरका अनन्तवा भाग बतलाया है; क्योंकि सामान्य अक्षरकी विवक्षा होनेपर केवलाक्षरको अपेक्षासे सम्पूर्ण श्रु तज्ञानाक्षर अनन्तवा भाग है। और ऐसा होना उचित ही है; क्योंकि केवलज्ञानकी स्वपर्यायोंसे श्रु तज्ञानको स्वपर्याय अनन्त भाग है। यह अक्षर श्रु तज्ञान है । श्वासोच्छ्वास, थूकना, खांसना, जंभाई आदिके शब्द अनक्षर श्रत है; क्योंकि वह केवल शब्दमात्र है, अक्षररूप नहीं है। किसी मनुष्यके दीर्घश्वासका शब्द सुनकर 'यह शोकमें है' इस प्रकारका श्रतज्ञान होता है। यह श्रुतज्ञान शब्दसे उत्पन्न होनेपर भी अक्षररूप शब्दसे उत्पन्न नहीं हुआ, इसलिए इसे अनक्षर श्रु त कहते हैं । इस तरह श्वेताम्बर परम्परामें भी श्र तज्ञानके अक्षररूप और अनक्षररूप भेद हैं, किन्तु वे दोनों ही शब्दज हैं। अन्तर केवल इतना है कि अक्षररूप श्रुतज्ञान अक्षरात्मक शब्दसे उत्पन्न होता है और अनक्षर रूप श्र तज्ञान अनक्षररूप शब्दसे जन्य होता है। किन्तु दिगम्बर परम्परामें शब्दज श्रु तज्ञानको अक्षरात्मक श्रत और लिंगज श्र तज्ञानको अनक्षरात्मक श्रुत माना गया है, परन्तु यह स्पष्ट है कि श्र तज्ञानमें शब्दको ही प्रधानता है यह बात दिगम्बर परम्परा. को भी इष्ट है । दिगम्बर जैन आगमिक परम्पराके मान्य ग्रन्थ श्री गोमट्टसार (जीवकाण्ड )में श्रु तज्ञानका वर्णन प्रारम्भ करते हुए कहा है-'णियमेणिह सद्द पमुहं ।। ३१५ ॥' इसका व्याख्यान करते हुए टीकाकारने लिखा है कि"ध तज्ञानके प्रकरणमें शब्दज अक्षरात्मक और लिंगज अनक्षरात्मक भेदों में से वर्ण-पद-वाक्यात्मक शब्दसे जनित श्र तज्ञानकी ही प्रधानता है; कोंकि देन-लेन, पठन-पाठन आदि सब व्यवहारोंका वही मूल है। यद्यपि लिंगज अनक्षरात्मक श्र तज्ञान एकेन्द्रियसे लेकर पंचेन्द्रिय पर्यन्त जीवोंके होता है फिर भी व्यवहारोंमें अनुपयोगी होनेसे वह अप्रधान है। तथा जो 'श्र यते' अर्थात श्रोत्रेन्द्रियके द्वारा ग्रहण किया जाता है, उसे श्रु त अथवा शब्द कहते हैं। और शब्दसे उत्पन्न अर्थज्ञानको श्र तज्ञान कहते है" इस व्युत्पत्तिसे भी अक्षरात्मक श्र तज्ञानकी ही प्रधानता स्पष्ट होती है।' १. 'कससि नीससिअंनिच्छूटं खासिनं च छीअंच। निस्सिंधियमणुसारं अणक्खरं छेलियाईणं' ॥५०१॥-वि० भा० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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