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________________ परोक्षप्रमाण २८९ है, वह उसकी परपर्याय कही जाती है। यहाँ 'स्व' और 'पर' शब्द केवल निमित्तभेदको बतलाते हैं। अतः अक्षरमें घटादिपर्यायोंका अस्तित्व नहीं है, इसलिए उन्हें परपर्याय कहा है। किन्तु इसका यह मतलब नहीं है कि वे परपर्याय अक्षरसे सर्वथा असम्बद्ध हैं ? नास्तित्वरूपसे ये पर्याय अकारके साथ सम्बद्ध हैं। यदि घटादि पर्यायोंका नास्तित्वरूपसे अक्षरके साथ सम्बन्ध नहीं माना जायेगा तो उन पर्यायोंका अक्षरमें अस्तित्व मानना पड़ेगा; क्योंकि अस्तित्व और नास्तित्व धर्म परस्परमें व्यवच्छेदरूप हैं, जहाँ जिसका अस्तित्व नहीं होता वहां उसका नास्तित्व होता है और जहां जिसका नास्तित्व नहीं होता वहां उसका अस्तित्व होता है। अतः प्रत्येक वस्तू स्वरूपको अपेक्षा हो सत है। इसलिए प्रत्येक वस्तुमें स्वरूपके सिवा अन्य समस्त घररूपोंका अभाव पाया जाता है। वह पररूपोंका अभाव भी उम वस्तुका स्वधर्म ही है; क्योंकि उसके बिना वस्तुका वस्तुत्व कायम नहीं रह सकता । वस्तुका बस्तुत्व दो बातोंपर कायम है-स्वरूपका ग्रहण और पररूपों का त्याग । अतः समस्त द्रव्योंकी जितनी पर्यायें होती है उतनी ही प्रत्येक अक्षरको पर्याय हैं। यह बात केबल अक्षरके विषयमें ही नहीं है, किन्तु लोक में वर्तमान जितनी भी वस्तुएँ हैं उन सबके विषयमें समझना चाहिए। किन्तु यहाँ अक्षरकी चर्चा है इसलिए यहाँ उसीकी पर्याय राशि बतलायी है। अक्षरको उस पर्यायराशिमें कुछ स्वपर्यायें हैं और शेष परपर्यायें हैं, जो वस्तुएँ अभिलाप्य हैं वे सब अक्षरके द्वारा कही जाती हैं। अत: उन अभिलाप्य वस्तुओंको कथन करनेको शक्तिरूप सभी पर्याय अक्षरकी स्वपर्यायें हैं, शेष जो अनभिलाप्य हैं वे परपर्यायें हैं । चूंकि अनभिलाप्य वस्तुओंके अनन्तवें भाग अभिलाप्य वस्तु है, इसलिए अकारादि वर्गों की स्वपर्यायें थोड़ी हैं, और परपर्यायें अनन्तगुणी हैं। इस तरह अपनी समस्त पर्याय प्रमाण अक्षरका अनन्तवा भाग केवलीके सिवा समस्त जोवोंके सदा उद्घाटित रहता है, कभी भी आवृत नहीं होता। उसके तीन भेद हैं-जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट । सबसे जघन्य अक्षरका अनन्तवां भाग पृथिवो आदि एकेन्द्रिय जीवोंके होता है । उत्कृष्टसे आवरण होनेपर भी यह कभी आच्छादित नहीं होता। आगे विशुद्धि होनेपर द्वीन्द्रिय आदि जीवोंके क्रमसे यह बढ़ता है। उत्कृष्ट अक्षरका अनन्तवाँ भाग सम्पूर्ण श्रुतज्ञानियोंके होता है। एकेन्द्रिय और सम्पूर्ण श्रुतज्ञानियोंके मध्यवर्ती जीवोंके मध्यम अक्षरका अनन्तवाँ भाग होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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