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________________ २८८ जैन न्याय अत: एकेन्द्रिय आदिके भी लब्ध्यक्षर श्रत होता है। प्रत्येक अकार आदि अक्षर स्वपर्याय और परपर्यायके भेदसे अनेक प्रकारका है । आशय यह है कि तीनों लोकोंमें परमाणु, आकाश वगैरह जितने द्रव्य है, जितने वर्ण (अक्षर) हैं और जितने उन वर्गों के वाच्य अर्थ हैं, उन सबकी मिलकर जितनी पर्यायराशि होती हैं उतनी ही पर्यायराशि प्रत्येक अकारादि अक्षरकी है। उस पर्यायराशिमें से कुछ स्वपर्याय हैं जिनको संख्या अनन्त है, और शेष अनन्तानन्त गुणी परपर्याय हैं । उदाहरणके लिए, कल्पना कीजिए कि सर्वद्रव्यपर्याय राशिका प्रमाण एक लाख है, और सब पदार्थोका प्रमाण एक हजार है। उन एक हजार पदार्थोंमें से एक अकार पदार्थको स्वपर्याय केवल सौ हैं जो कि सत्स्वरूप हैं, और शेष सब यानी सो कम एक लाख परपर्याय हैं, जो नास्ति स्वरूप हैं। इसी तरह इकार आदि प्रत्येक पदार्थको स्वपर्याय और परपर्याय जाननी चाहिए। अब प्रश्न यह है कि स्वपर्याय कौन हैं और परपर्याय कौन है ? उदात्त, अनुदात्त, सानुनासिक, निर. नुनासिक आदि जो पर्याय अकारादि अक्षरकी अपनी है, तथा जो पर्याय अकारा. दिके साथ अन्य वर्णका संयोग होनेसे होती हैं वे सब उसको स्वपर्याय हैं, वे स्वपर्याय अनन्त हैं क्योंकि उस एक अकारादि अक्षरके वाच्य द्रव्य अनन्त है। अत: उस अकारादि अक्षरमें उन अनन्त द्रव्योंको कथन करनेकी भिन्न-भिन्न अनन्त शक्तियाँ हैं । यदि ऐसा न माना जायेगा तो उस अकारादि अक्षरके सब वाच्य एक रूप हो जायेंगे क्योंकि वे एकरूप वर्णके वाच्य हैं। शेष इकार आदि सम्बन्धी तथा घट-पट आदि सम्बन्धी जो पर्यायें हैं वे अकारको परपर्याय है, क्योंकि उन सब पर्यायोंका 'अ'में अभाव है, अतः वे पर्याय नास्तिरूप हैं। इसी तरह इकार आदि अक्षरोंको भी स्वपर्याय और परपर्याय समझनी चाहिए। शंका-यदि अकारसे भिन्न इकार, घट, पट आदिको पर्यायोंको परपर्याय कहते हैं तो वे परपर्यायें अकारकी कैसे हैं ? और यदि वे अकारकी ही पर्यायें हैं तो उन्हें घटादि की परपर्यायें क्यों कहते हैं ? समाधान-यतः अकार, इकार आदि अक्षरोंमें घटादि पर्यायोंका अस्तित्व नहीं है, इसलिए उन्हें परपर्याय कहा है। किन्तु वे सब परपर्याय नास्तित्वरूपसे तो अकारसे सम्बद्ध ही हैं और इस दृष्टिसे वे भी अकारको स्वपर्यायें हैं, किन्तु अस्तित्वरूपसे घटादि पर्यायें घटादिमें ही रहती हैं। इसलिए वे अक्षरकी परपर्याय कही जाती हैं । वस्तुका स्वरूप दो प्रकारका है-~-एक अस्तित्वरूप और दूसरा नास्तित्वरूप । अतः जो पर्याय जिस वस्तुमें अस्तित्वरूपसे रहती है, वह उसको स्वपर्याय कही जाती है और जो पर्याय जिस वस्तुमें नास्तित्वरूपसे रहती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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