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जैन न्याय
अथवा अर्थग्रहणकी शक्तिरूप होता है, और इसके ऊपर वृद्धि होनेसे हो अक्षर श्रु तज्ञान होता है। अतः इस लब्ध्यक्षर श्रुतज्ञानमें भी अक्षरके अनन्तवें भागका क्षयोपशम अवश्य रहता है और वह अक्षरका ही पर्याय रूप है इसीसे इसे लव्यक्षर और पर्याय श्र तज्ञानके नामसे पुकारा जाता है । इसोपर-से 'विद्यानन्दने यह निष्कर्ष निकाला है--सर्वत्र श्रुतज्ञानमें अक्षरज्ञान अवश्य रहता है और इस. लिए 'शब्दयोजनासे हो श्र तज्ञान होता है' अकलंकदेवके इस कथनमें कोई बाधा नहीं है।
पंचेन्द्रियोंको भी जो श्रोत्रइन्द्रियके सिवा अन्य इन्द्रियजन्य मतिज्ञानपूर्वक श्रुतज्ञान होता है. उसमें भी शब्दयोजना अवश्य रहती है। वह शब्दयोजना चाहे बाह्य में हो अथवा अभ्यन्तरमें हो। अतः श्रुतज्ञान ही एक ऐसा ज्ञान है जो ज्ञानरूप भी है और शब्दरूप भी है। उससे ज्ञाता स्वयं भी जानता है और दूसरों को भी ज्ञान कराता है। इसीके द्वारा ज्ञानका प्रकाश फैलता है। इसोके द्वारा पूर्वज तीर्थंकरों और ऋपियोंका ज्ञान प्रवाहित होता है। कोई इसे श्रुत कहता है, कोई श्रुति कहता है, कोई आगम कहता है, कोई वेद कहता है। ये सब विविध महापुरुषोंके मुखसे सुने गये अथवा उनके द्वारा जाने गये ज्ञानकी धाराके प्रतीक है। श्रुतज्ञानके श्वेताम्बर लम्मत भेद
श्वेताम्बर परम्परामें श्रुतज्ञानके चौदह भेद बतलाते हैं जो इस प्रकार है'अक्षरश्रुत, अनक्षरशुत, संज्ञोश्रुत, असंज्ञोश्रुत, सम्यक् श्रुत, मिथ्याश्रुत, सादिश्रुत, अनादिश्रुत, सपर्यवसितश्रुत, अपर्यवसितश्रुत, गमिस श्रुत, अगमिकश्रुत, अंगप्रविष्ट, अनंगप्रविष्ट । इन चौदह भेदों में से आदिके दो भेद-अक्षरश्रुत, अनक्षरश्रुत और अन्तके दो भेद अंग प्रविष्ट, अनंगप्रविष्ट, (अंगबाह्य) दिगम्बर परम्परामें
१. "शब्दानुयोजनादेव श्रु तमेव न बाध्यते । शानशब्दाद्विना तस्य शक्तिरूपादसंभवात् ॥१११॥ लब्ध्यक्षरस्य विज्ञानं नित्योद्घाटनविग्रहम् । अ ताशानेऽपि हि प्रोक्तं तत्र सर्वजघन्यके ॥११॥ स्पर्शनेन्द्रियमात्रोत्थे मत्यज्ञाननिमित्तकम् । ततोऽक्षरादिविज्ञानं श्रु ते सर्वत्र सम्मतम् ॥११३।। नाकलंकवचोबाधा संभवत्यत्र जातुचित् । तादृशः संप्रदायस्याविच्छेदायु क्त्यनुग्रहात् ॥११४॥"
-त० श्लो० वा०, पृ० २४१ । २. विशे० भा०, गा० ४५४ ।
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