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________________ परोक्षप्रमाण २८५ सारांश यह है कि शब्दका अनुसरण करके जो मतिविशेष उत्पन्न होते हैं वह सब श्रुतज्ञान ही है। और जो शब्दका अनुसरण न करके वस्तुतत्त्वका अवलोकन करनेसे स्वयं ही मतिविशेष उत्पन्न होते हैं वह शुद्ध मतिज्ञान है। कुछ व्याख्याता ऐसा मानते हैं कि जो मतिविशेष शब्दानुसारी होते हुए भी शब्दकी प्रवृत्तिसे रहित हैं और केवल हृदयमें ही स्फुरित होते हैं वे मतिज्ञान ही है। किन्तु ऐसा मानना उचित नहीं है। क्योंकि ऐसा माननेसे भावयु तके अभावका प्रसंग उपस्थित होगा। मतिज्ञान और श्र तज्ञानके द्वारा जाने गये पदार्थोंमें-से जो पदार्थ कहे जानेके योग्य है वह भावश्रुत है। अर्थात् अन्तर्विकल्पमें तैरते हुए जो पदार्थ भाषणके योग्य है, भले ही उनका कथन न किया जाये, किन्तु भाषणके योग्य होनेसे वे भाव त हैं । अतः मतिज्ञानके द्वारा जाने गये अनभिलाप्य अर्थ भाषणके अयोग्य होते हैं अतः वे भावश्रुत नहीं हैं । किन्तु जो भाषणके योग्य हैं, भले ही उनका कथन न किया जाये, फिर भी विकल्प में प्रतिभासित ऐसे सब अर्थ भावश्रु त कहे जाते हैं। सारांश यह है कि जो घटादि पदार्थ कथन करनेके योग्य होते हुए भी शब्दानुसारी न होनेसे श्र तज्ञान में उपयुक्त जीवोंके द्वारा कथन नहीं किये जाते, तथा जो अर्थपर्याय रूप होनेसे वाचक शब्दके अभावसे कथन करनेके अयोग्य है, ऐसे अर्थ जिस ज्ञान में प्रतिभासित हों, वह मतिज्ञान है, श्र तज्ञान नहीं है, क्योंकि ऐसा जो ज्ञान कथन करने के योग्य वस्तुको विषय करता है वह तो शब्दा. नुसारी नहीं है और जो कथन करनेके अयोग्य वस्तुओंको विषय करता है वह भाषणके अयोग्य है। इस तरह पूर्वोक्त प्रकार से केवल कथन करने योग्य अर्थको ही विषय करनेके कारण जितना भी श्रु तज्ञान है सब शब्दका परिणाम है। शब्दसे यहाँ परोपदेशरूप शब्द तथा ग्रन्थरूप शब्द लिया गया है। उससे उत्पन्न होनेवाला ज्ञान शब्द परिणाम रूप होता ही है। किन्तु मतिज्ञान शब्द परिणामरूप भी १. "जे अक्खराणुसारेण मई विसेसा तयं सुयं सव्वं । जे उण सुयनिरवेक्खा सुद्ध चिय तं मइन्नाणं ॥" ॥१४४॥ विशे० भा० । २. विशे० भा०, गा० १४५ । ३. "एवं धणि परिणामं सुयनाणं उभयहा मइन्नाणं । जं भिन्नसहावाहं ताई तो भिन्न रूवाई ॥१५॥"-विशे० भाष्य । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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