SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 299
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४. जैन न्याय शान नहीं हो सकता, क्योंकि उनमें शब्दानुसारीपना नहीं है। किन्तु आगममें एकेन्द्रियोंके श्रुतज्ञान माना है ? समाधान--द्रव्यश्रुत ( शब्द ) के अभावमें भी एकेन्द्रियोंके भावश्रुत मानना चाहिए । अर्थात् यद्यपि एकेन्द्रियोंके द्रव्यश्रुत नहीं होता फिर भी ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशम रूप भावश्रुत होता है। इस तरह मति और श्रुतका लक्षण भिन्न-भिन्न होनेसे मति और श्रुतमें भेद है। तथा मतिपूर्वक ही श्रुत होता है इसलिए भी मति और श्रुत भिन्न-भिन्न हैं । शंका-दूसरेसे शब्द सुनकर जो मतिज्ञान उत्पन्न होता है वह तो श्रुतपूर्वक है; क्योंकि आपने शब्दको श्रुत कहा है। अतः श्रुतपूर्वक भी मतिज्ञान होता है। __ समाधान-दूसरेसे शब्द सुनकर जो मतिज्ञान उत्पन्न होता है वह द्रव्यश्रुतसे उत्पन्न होता है; क्योंकि शब्द केवल द्रव्यश्रत है, भावश्रु त उसका कारण नहीं है। अतः मति भावथ तपूर्वक नहीं होता। द्रव्यश्रु तपूर्वक होता है तो होओ, उसके होनेसे कोई दोष नहीं आता। ___ तथा मतिज्ञान और श्रु तज्ञानमें इन्द्रिय भेद भी है। क्योंकि श्रोत्रेन्द्रियके द्वारा होनेवाले ज्ञानको हो श्रु तज्ञान कहते हैं। किन्तु 'श्रोत्रेन्द्रियके द्वारा होने वाले ज्ञानको श्रुत ही कहते हैं' ऐसा कहना ठीक नहीं है; क्योंकि श्रोत्रेन्द्रियके द्वारा होनेवाला ज्ञान मतिज्ञान भी हो सकता है। उनमें जो ज्ञान शब्दानुसारी होता है वही श्रत है। तथा श्रोत्रेन्द्रिय और शेष इन्द्रियोंके द्वारा जो ज्ञान होता है वह मति है किन्तु इतना विशेष है कि चक्षु आदि शेष चार इन्द्रियोंमें जो श्रु तानुसारी शब्दोल्लेखसहित ज्ञानरूप अक्षर लाभ होता है वह भी श्रु तज्ञान है। शंका-इस तरह तो श्रु तज्ञान और मतिज्ञान दोनों ही सब इन्द्रियोंके निमित्तसे हुए कहे जायेंगे। फिर दोनोंमें इन्द्रियभेद कैसे रहा? समाधान--आपका कहना ठीक है, किन्तु यद्यपि शेष इन्द्रियोंके द्वारा आया होनेसे उस अक्षरलाभको शेष इन्द्रियोंके द्वारा होनेवाली उपलब्धि कहा जाता है, फिर भी चूंकि वह शब्दात्मक है अतः वह थोत्रेन्द्रियके हो ग्रहण योग्य होता है। इसलिए वास्तव में वह श्रोत्रेन्द्रियके द्वारा होनेवाली उपलब्धि हो है। और ऐसा होनेसे वास्तव में श्रतज्ञान श्रोत्र इन्द्रियके निमित्तसे ही होता है किन्तु मतिज्ञान श्रोत्रेन्द्रिय तथा शेष सब इन्द्रियोंके निमित्तसे होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy