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परोक्षप्रमाण
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कृत मानी जानेवाली 'निश्चय द्वात्रिंशिका में तो श्रुतको मतिसे भिन्न मानना व्यर्थ ही बतलाया है । किन्तु सैद्धान्तिक पक्ष इस मतको मान्य नहीं करता । वह श्रुतज्ञानको मतिज्ञानसे भिन्न तो मानता है, किन्तु उसे मतिका ही एक रूपान्तर मानता है । विशेष इस प्रकार है
मति और श्रुतमें भेद बतलाते हुए विशेषावश्यक भाष्यकार लिखते हैं: "मतिका लक्षण जुदा है और श्रुतका लक्षण जुदा है; मति कारण है श्रुत उसका कार्य है, मतिके भेद जुदे हैं और श्रुतके भेद जुदे हैं, श्रुतज्ञानकी इन्द्रिय केवल श्रोत्र है और मतिज्ञानकी इन्द्रियाँ सभी हैं, मतिज्ञान मूक है, श्रुत वाचाल है, इत्यादि कारणोंसे मति और श्रुतमें भेद है ।
इन्द्रिय और मनकी सहायता से शब्दानुसारी जो ज्ञान होता है, जो कि अपने में प्रतिभासमान अर्थका प्रतिपादन करने में समर्थ होता है, उसे श्रुतज्ञान कहते हैं । आशय यह है कि 'घट' शब्दको सुनकर घट अर्थके साथ उसकी संगति करनेपर जो अन्तरंग में 'घट' 'घट' शब्दोल्लेखसे सहित ज्ञान उत्पन्न होता है वह श्रुतज्ञान है । शब्दोल्लेखसहित उत्पन्न हुआ यह ज्ञान अपने में प्रतिभासमान अर्थके प्रतिपादक शब्दको उत्पन्न करता है और उससे दूसरे श्रोताको बोध होता है । अर्थात् श्रुतज्ञानके द्वारा ज्ञाता स्वयं भी जानता है और उससे दूसरोंको भी ज्ञान कराता है । तथा इन्द्रिय और मनके निमित्तसे जो ज्ञान उत्पन्न होता है जो कि शब्दानुसारी नहीं होता, उसे मतिज्ञान कहते हैं ।
शंका- यदि शब्दोल्लेखसहित ज्ञानको श्रुतज्ञान और शेषको मतिज्ञान मानते हैं तो केवल अवग्रह ही मतिज्ञान हो सकेगा, ईहा, अपाय, आदि मतिज्ञान नहीं कहे जा सकेंगे; क्योंकि उनमें शब्दका उल्लेख पाया जाता है ।
समाधान - उक्त शंका ठीक नहीं है, क्योंकि यद्यपि ईहा वगैरह ज्ञान भी शब्दोल्लेख सहित होते हैं; किन्तु वे शब्दानुसारी ज्ञान नहीं हैं, जो शब्दोल्लेख सहित ज्ञान शब्दानुसारी होता है, वही श्रुतज्ञान होता है ।
शंका --- यदि शब्दानुसारी ज्ञानको श्रुतज्ञान मानते हैं तो एकेन्द्रियोंके श्रुत
१.
' वैयर्थ्यातिप्रसंगाभ्यां न मत्यभ्यधिकं श्रुतम् ॥१६॥
२. वि० भा० गा० ६७ ।
३. 'इंदियमगोणिमित्तं जं बियाणं सुयाणसा रेां । नियमत्युत्तिसमत्थं तं भावसुयं
मई सेसं ॥ १०० ॥ विशे० भा० ।
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