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जैन न्याय
युक्तिके आधारपर ठीक बतलाया है। उनका कहना है कि शास्त्रोंमें कहा है कि प्रत्येक संसारी जीवके मति, श्रुत अथवा कुमति, कुश्रुत ज्ञान अवश्य रहते हैं । यहाँ तक कि सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीवके भी, जिसके केवल एक स्पर्शन इन्द्रिय है, स्पर्शन इन्द्रियसे होनेवाले कुमतिज्ञानपूर्वक कुश्रुतज्ञान भी होता है । उस कुश्रुतज्ञानका नाम लब्ध्यक्षर है और वह ज्ञान सदा विकसित रहता है, कभी भी उसका लोप नहीं होता। इसका यह मतलब हुआ कि लब्धिरूपमें अक्षरज्ञान प्रत्येक जीवमें वर्तमान रहता है। अतः श्रोत्रेन्द्रिय अथवा अन्य इन्द्रियोंसे होनेवाले मतिज्ञानपूर्वक श्र तज्ञानमें अक्षरज्ञान अवश्य रहता है । इसलिए शब्दयोजनासहित ज्ञान ही श्रुतज्ञान है ।'
पूर्वाचार्योंके वचनोंका अनुशीलन करनेसे भी इसी बातको पुष्टि होती है। प्रथम तो तत्त्वार्थसूत्रकारने ही श्रु तज्ञानके भेद अंग और अंगबाह्य बतलाये हैं, ये दोनों भेद शब्द और तज्जन्य ज्ञानको अपेक्षा ही होते हैं। दूसरे पूज्यपादने श्रुतज्ञानका व्याख्यान करते हुए श्रतको अनादिनिधन बतलाया है तथा उसके अपौरुषेय होनेका निराकरण किया है; (क्योंकि मीमांसक वेदको अपौरुषेय मानते हैं) और श्रुतपूर्वक श्रुतका उदाहरण देते हुए लिखा है कि जैसे किसीने 'घट' शब्द सुना, फिर आँखोंसे घटको देखा, उसके पश्चात् 'यह घट है' ऐसा जाना फिर यह घट पानी भरनेके काम आता है ऐसा जाना । ये सब भी इसी बातकी पुष्टि करते हैं। तीसरे समन्तभद्र स्वामीने श्रतको 'स्याद्वाद' शब्दसे कहा है। और जो अनेकान्तका प्रतिपादन करता है उसे स्याद्वाद कहा है । इससे भी इसी बातकी पुष्टि होती है कि श्रु तज्ञान में शब्दकी प्रधानता है। श्वेताम्बर परम्परामें तो श्रुतज्ञानमात्र शब्दज ही होता है ।
श्रुतज्ञानके विषयमें श्वेताम्बर मान्यता-श्वेताम्बर साहित्यमें श्रुतज्ञानको चर्चा विस्तारसे की गयी है। जिनभद्रगणिका विशेषावश्यक भाष्य इस दृष्टिसे उल्लेखनीय है । गणिजीने श्रुतंज्ञानको मतिज्ञानका ही एक भेद माना है। इन्द्रिय और मनके निमित्तसे उत्पन्न होनेवाला सब ज्ञान मतिज्ञान ही है। केवल परोपदेश और आगमके वचनोंसे उत्पन्न होनेवाला ज्ञानविशेष श्रुतज्ञान है। आचार्य सिद्धसेन .
१. 'श्रुतं मतिपूर्व दयनेकद्वादशभेदम् ॥२०॥' त० सू० १ श्रा| २. सर्वा०सि० सू०१-२०। ३. 'स्याद्वादकेवलज्ञाने-आ० मी० का० १०५ । ४. 'मइभेश्रो चेव सुयं' -विशे० भा० गा० ८६ ।
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