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परोक्षप्रमाण
अकलंकने शब्दयोजनासे पहले होनेवाले ज्ञानको मतिज्ञान और शब्दयोजनासहित ज्ञानको श्र तज्ञान कहा है। जो इस बातको बतलाता है कि यह कोई आवश्यक नहीं है कि प्रत्येक ज्ञान शन योजनासे सहित ही हो, शब्द संसर्गके बिना भी ज्ञान हो सकता है।
यहांतक विद्यानन्दको 'शब्द संसृष्ट ज्ञान श्र तज्ञान हो होता है। यह बात तो मान्य है, किन्तु 'शब्द संसृष्ट ज्ञान ही श्र तज्ञान होता है' यह मत मान्य नहीं है। परन्तु अकलंकदेवके प्रधान टीकाकार तथा अनन्य अनुयायो विद्यानन्द अक. लंक मतका विरोध करके भी उसे आगम और युक्तिके प्रतिकूल बतलानेका साहस तो नहीं हो कर सकते अतः शब्दाद्वैतका खण्डन करके वे पुनः प्रकृत चर्चाकी ओर आते हैं और अकलंक मतका समर्थन करते हुए कहते हैं-'जन. दर्शनमें वचनके दो भेद हैं-द्रव्यवाक् और भाववाक् । द्रव्यवाक्के भी दो भेद हैं-एक द्रव्यरूप और एक पर्यायरूप । पर्यायरूप द्रव्यवाक् श्रोत्रेन्द्रियसे ग्राह्य है। इसी वाक्को शब्दाद्वैतवादी वैखरी अथवा मध्यमा नामसे कहते हैं। भाषावर्गणारूप जो पुद्गल है वह द्रव्यरूप वाक् है। यह द्रव्यरूप वचन सब ज्ञानोंका अनुगामो नहीं है । अर्थात् सभी ज्ञानोंमें द्रव्यरूप वचन नहीं पाया जाता। तथा ज्ञानावरणके क्षय अथवा क्षयोपशमसे युक्त आत्मामें जो बोलनेकी सूक्ष्म शक्ति है वही भाववाक् है । इस भाववाक्के बिना किसीके मुखसे कभी भी वचन नहीं निकल सकता। सर्वज्ञ भगवान्के भो अनन्त ज्ञानशक्निके प्रतापसे हो वचनका उद्भव होता है । यह भाववाक् रूप शक्ति समस्त आत्माओंमें पायी जाती है; क्योंकि वह चेतना सामान्यका धर्म है । उस शक्तिरूप ज्ञान और शब्दके बिना श्रुतज्ञान नहीं हो सकता । आगममें सूक्ष्म निगोदिया जीवके सबसे जघन्य लब्ध्यक्षर नामक कुश्रुत ज्ञान कहा है, जो सदा उद्घाटित रहता है और स्पर्शन इन्द्रिय जन्य कुमति ज्ञानपूर्वक होता है। अतः मतिज्ञान पूर्वक होनेवाले समस्त श्रुतज्ञानमें अक्षरज्ञान अवश्य रहता है इसलिए अकलंकदेवने जो यह नियम किया है कि शब्दयोजना होनेसे ही श्रुतज्ञान होता है उसमें कोई विरोध नहीं आता। इस तरहके उपदेशको परम्परा पायी जाती है तथा युक्तिसे भी यह बात सिद्ध है।
इस प्रकार विद्यानन्दने भी अकलंकदेवके उक्त मतको अन्तमें आगम और
१. तत्त्वार्थ श्लो०, पृ० २४१-२४२ । २. 'इत्यलं प्रपञ्चेन, 'श्रुतं शब्दानुयोजनादेव' इत्यवधारणस्याकलकाभिप्रेतस्य कदाचिद् विरोधाभावात् तथा सम्प्रदायस्याविच्छेदाद्युक्त्यनुग्रहाच्च सर्वमतिपूर्वकस्यापि श्रुतस्याक्षरज्ञानत्वं व्यवस्थिते:-तत्त्वार्थश्लो०, पृष्ठ २४२ ।
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