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२८.
जैन न्याय अक्षरोच्चारणमें निमित्त होता है, इसलिए उसे अक्षरात्मक कहते हैं। और अक्षरके निमित्तके बिना जो श्रुतज्ञान होता है वह अनक्षर श्रुत है। किन्तु वह तभीतक अनक्षर श्रुत है जबतक वह परोपदेशमें निमित्त नहीं होता। जहां उसने वचनका रूप धारण किया कि वह भी अक्षरात्मक श्रुत हो जाता है।
श्रुतज्ञानके विषयमें अकलंकदेवका मत-उक्त विवेचनसे यह निष्कर्ष निकलता है कि श्र तज्ञानमें शब्द ही प्रधान कारण है । इसीसे अकलंकदेवने अपने लघीयस्त्रय नामक प्रकरणमें कहा है-'शब्द' योजनासे पहले जो मति, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क और अनुमान ज्ञान होते हैं, वे मतिज्ञान हैं और शब्द योजना होनेसे वे श्रुतज्ञान हैं।
श्रुतज्ञानके विषयमें आचार्य विद्यानन्दकी समीक्षा-आचार्य विद्यानन्दने अपने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक नामक ग्रन्थमें श्रुतज्ञानका स्वरूप बतलाते हुए अकलंकदेवके उक्त मतकी सुन्दर समीक्षा की है। वे कहते हैं-'विचारणीय यह है कि शब्दयोजनापूर्वक होनेवाला ज्ञान ही श्रुतज्ञान है अथवा शब्दयोजनापूर्वक होनेवाला ज्ञान श्रुतज्ञान ही है ? यदि शब्दयोजनापूर्वक होनेवाला ज्ञान श्र तज्ञान हो है तो इसमें हमारा कोई विरोध नहीं है; क्योंकि ऐसा नियम करनेसे शब्द संसृष्टज्ञान श्र तज्ञानके सिवा अन्य नहीं हो सकता। किन्तु यदि शब्दयोजनापूर्वक होनेवाले ज्ञानको ही श्र तज्ञान माना जाता है, तो श्रोत्रजन्य मतिज्ञानपूर्वक ही श्रुतज्ञान हो सकेगा और चक्षु आदिसे जन्य मतिज्ञानपूर्वक व तज्ञान नहीं हो सकेगा और ऐसा होनेसे सिद्धान्तमें विरोध उपस्थित होगा। हां, चूंकि लोकव्यवहार में शब्दजन्यज्ञानको श्रुत कहा जाता है इसलिए यदि यह नियम बनाया है कि शब्दयोजनापूर्वक जो ज्ञान होता है वही श्रु तज्ञान है तो इससे सिद्धान्तमें बाधा नहीं आती; क्योंकि चक्षु आदिसे उत्पन्न मतिज्ञानपूर्वक होनेवाले श्रु तज्ञानको भी वास्तव में स्वीकार कर लिया गया है ।
इस प्रकार अकलंकदेवके उक्त कथनको केवल व्यवहारकी दृष्टि से ठीक बतलाकर विद्यानन्द पुन: कहते हैं-अथवा शब्दाद्वैतवादी वैयाकरणोंका मत है कि'लोकमें ऐसा कोई ज्ञान नहीं है जो शब्दयोजनाके बिना हो, सब ज्ञान शब्दसे अनुविद्ध ही भासित होते हैं।' इस एकान्तवादका निराकरण करनेके लिए ही
१. "ज्ञानमाय मतिः संज्ञा चिन्ता चाभिनिबोधिकम् ॥१०॥ प्राङ नामयोजनाच्छेषं
श्रुतं शब्दानुयोजनात्"। २. तत्त्वार्थश्लो०, पृ० २३६-२४० ।
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