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परोक्षप्रमाण
ऊपर गोम्मटसार जीवकाण्डकी संस्कृत टीकाके आधारपर अक्षर और अनक्षर श्रुतकी जो परिभाषा दी गयी है वही प्रचलित परिभाषा है। किन्तु अकलंकदेवके उक्त कथनके साथ उसकी संगति नहीं बैठती। उसके अनुसार तो एक ही श्रुतज्ञान अनक्षरात्मक भी होता है और अक्षरात्मक भी होता है । जबतक वह ज्ञान रूप रहता है तबतक अनक्षरात्मक है और जब वह वचनरूप होकर दूसरेको ज्ञान कराने में कारण होता है तब वही अक्षरात्मक कहा जाता है।
अकलंकदेवके पूर्वज आचार्य पूज्यपादने प्रमाणके दो भेद किये हैं-स्वार्थ और परार्थ । तथा श्रुतज्ञानके सिवाय शेष ज्ञानोंको केवल स्वार्थ प्रमाण बतलाया है और श्रुतज्ञानको स्वार्थ भी बतलाया है और परार्थ भी बतलाया है। ज्ञानात्मक श्रुत स्वार्थ है और वचनात्मक श्रुत परार्थ है ।'
यह सब जानते हैं कि वस्तुको जाननेका मुख्य साधन ज्ञान है । ज्ञानके द्वारा ही हम सबको जानते हैं । और दूसरोंको ज्ञान करानेका मुख्य साधन है वचन । ज्ञाता वचनके द्वारा श्रोताओंको बोध कराता है और वचन व्यवहार केवल श्रुतज्ञानमें हो पाया जाता है। क्योंकि 'जो सुना जाये' वह श्रुत इस व्युत्पत्तिके अनुसार श्रतका अर्थ होता है 'शब्द'। वक्ताके द्वारा कहा गया शब्द श्रोताके श्रुतज्ञानमें कारण होता है। और वह वक्तामें विद्यमान श्रुतज्ञानका कार्य है; क्योंकि वक्ताका श्रतज्ञान ही तो वचनका रूप धारण करता है। अतः शब्द एक ओर श्रुतज्ञानका कार्य है तो दूसरी ओर श्रुतज्ञानका कारण है।
इतने स्पष्टीकरणके पश्चात् जब हम अक्षर और अनक्षर श्रुतकी दोनों परिभाषाओंकी तुलना करते हैं तो प्रचलित परिभाषाके अनुसार तो अक्षरके निमित्तसे होनेवाला श्रुतज्ञान अक्षरात्मक कहा जाता है और अकलंकदेवके अनुसार अक्षरोच्चारणमें निमित्त ज्ञान अक्षरात्मक है। दूसरे शब्दोंमें एकके अनुसार श्रोताका श्रुतज्ञान अक्षरात्मक है। दूसरेके अनुसार वक्ताका वचनात्मक श्रुतज्ञान अक्षरात्मक है। किन्तु विचार करनेपर दोनों ही श्रुतज्ञानोंको अक्षरात्मक मानना समुचित प्रतीत होता है क्योंकि वास्तवमें तो ज्ञान अक्षरात्मक नहीं हो सकता। क्योंकि ज्ञान भावरूप है और अक्षर द्रव्यरूप है। अथवा ज्ञान चेतन है और अक्षर जड़ है। किन्तु ज्ञान अक्षरके निमित्तसे उत्पन्न होता है अथवा
१. 'तत्र प्रमाणं द्विविधं, स्वार्थ पराथं च । तत्र स्वार्थ प्रमाणं श्रुतवयम् । श्रुतं पुनः
स्वार्थ भवति परार्थं च । शानात्मकं स्वार्थ वचनात्मकं परार्थम्। सर्वा०
सू० १-६।
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