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________________ जैन न्याय समाधान- नहीं, क्योंकि ऐसा माननेसे तो श्रुतज्ञान मतिज्ञान हो हा जायेगा । मतिज्ञान भी शब्दको सुनकर 'यह 'गो' शब्द है' ऐसा जानता है । अतः श्रुतज्ञान, इन्द्रिय और मनके द्वारा जिसकी कुछ पर्यायोंको जान लिया गया है और कुछ पर्यायोंको नहीं जाना है ऐसे शब्द और उसके वाच्यको श्रोत्रेन्द्रिकी सहायता के बिना ही जानता है । २७८ संक्षेप में मतिज्ञानसे जाने हुए पदार्थ में मनकी सहायतासे होनेवाले विशेष ज्ञानको श्रुतज्ञान कहते हैं । चूंकि मतिज्ञान पाँचों इन्द्रियोंकी और मनको सहायतासे उत्पन्न होता है अतः पाँचों इन्द्रियों और मनसे ज्ञात विषयको ही आलम्बन लेकर श्रुतज्ञान व्यापार करता है । इसलिए श्रुतज्ञानके दो भेद हो गये हैं- एक अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान और एक अक्षरात्मक श्रुतज्ञान । श्रोत्रेन्द्रियके सिवा शेष चार इन्द्रियोंसे किसी भी इन्द्रिय और मनको सहायता से होनेवाले मतिज्ञानपूर्वक जो श्रुतज्ञान होता है उसे अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान कहते हैं । और श्रोत्रेन्द्रियजन्य मतिज्ञानपूर्वक जो श्रुतज्ञान होता है उसे अक्षरात्मक श्रुतज्ञान कहते हैं । जैसे किसीने कहा - 'जीव है' । श्रोत्रेन्द्रियके द्वारा इस शब्दको सुनना मतिज्ञान है । और उसके निमित्त से जीव नामक पदार्थके अस्तित्वको जानना अक्षरात्मक श्रुतज्ञान है अर्थात् अक्षररूप शब्दसे उत्पन्न हुए ज्ञानको भी कार्य में कारणका उपचार करके अक्षरात्मक कहा जाता है । वास्तव में ज्ञान अक्षररूप नहीं होता । अक्षरात्मकका दूसरा नाम शब्दज भी है । तथा, शोतल पवनका स्पर्श होनसे जो शीतल पवनका ज्ञान हुआ, वह मतिज्ञान है । और उस ज्ञानसे वायु प्रकृतिवाले मनुष्यको जो यह ज्ञान होता है कि 'यह वायु मुझे अनुकूल नहीं है' यह अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान है । क्योंकि यह ज्ञान अक्षर के निमित्तसे नहीं हुआ । इसका दूसरा नाम लिंगज श्रुतज्ञान भी हैं । श्रुतज्ञानके इन अक्षर और अनक्षर भेदोंका सबसे प्राचीन उल्लेख अकलंकदेवके तत्त्वार्थ े वार्तिक में मिलता है । उन्होंने श्रुतज्ञानका वर्णन करते हुए अन्य दर्शनोंमें माने गये अनुमान, उपमान, शब्द, ऐतिह्य, अर्थापत्ति, सम्भव और अभाव नामक प्रमाणोंका अन्तर्भाव श्रुतज्ञानमें किया है । उनका कहना है कि शब्द प्रमाण तो श्रुतज्ञान ही है। तथा शेष प्रमाणोंके द्वारा जानता है उस समय वे अनक्षर श्रुत हैं और जब वह इनके ज्ञान कराता है तो वे अक्षर श्रुत है । जब ज्ञाता स्वयं द्वारा दूसरोंको १. गो० जी० टी० गा० १२५ । २. सूत्र १ २०, पृ० ५४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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