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________________ जैन न्याय होता है और अ-शब्द परिणामरूप भी होता है; क्योंकि वह भाषण के योग्य अर्थको भी विषय करता है और भाषण के अयोग्य अर्थको भी विषय करता है। अतः शब्दकी अपेक्षा न करके अपनी बुद्धिसे ही विकल्पित कथन योग्य पदार्थोमें ध्वनि परिणाम मतिज्ञानमें भी पाया जाता है। किन्तु जिस मतिज्ञानका विषय अनभिलाप्य (कथन करनेके अयोग्य) पदार्थ होता है उसमें ध्वनि परिणाम नहीं पाया जाता; क्योंकि अनभिलाप्य पदार्थोंको स्वयं जानकर भी, उनके वाचक शब्दोंके न होनेसे न तो उनका अन्तर्विकल्प होता है और न दूसरोंके प्रति उनका कथन किया जा सकता है।' उक्त विवेचनका सार यह है कि पुस्तक आदिमें अंकित लिपिरूप अक्षर और मुखसे उच्चारित शब्दरूप अक्षरको द्रव्यश्रुत कहते हैं । चूंकि श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है इसलिए द्रव्यश्रुतसे अवग्रह, ईहा आदि ज्ञान भी उत्पन्न होते हैं अर्थात् पुस्तकपर अंकित अक्षरोंको देखकर तथा शब्द सुनकर प्रारम्भमें तो अव. ग्रह आदि मतिज्ञान ही होता है, किन्तु अक्षररूप होनेसे द्रव्यश्रुत मुख्यरूपसे श्रुतज्ञानका ही असाधारण कारण है। अतः श्रुतज्ञानका कारण होनेसे द्रव्यश्रतका अन्तर्भाव श्रुतज्ञानमें ही किया जाता है। तथा द्रव्यश्रुत दूसरोंको ज्ञान करानेमें कारण है इसीसे श्रुतज्ञानको भो परप्रबोधक माना जाता है।' इस श्वेताम्बर मान्यताके साथ दिगम्बर मान्यताका कोई विरोध लक्षित नहीं होता; क्योंकि दिगम्बर मान्यता भी श्रुतज्ञानको परार्थ-परप्रबोधक बतलाती है और उसके परार्थ होनेका कारण है श्रुतज्ञानका वचनात्मक होना। वचनात्मक श्रुत ही द्रव्यश्रुत है और ज्ञानात्मक श्रुत भावश्रुत है । यदि ज्ञानात्मक श्रुतमें अर्थात् श्रुतज्ञानमें अक्षरबोध न हो तो वह वचनात्मक श्रुतका रूप नहीं ले सकता। अतः जो ज्ञान शब्दसे जन्य है और शब्दका जनक है वही श्रुतज्ञान है। ऐसा ज्ञान बिना शब्दयोजनाके नहीं हो सकता। इसीसे अकलंकदेवने शब्दयोजना सहित ज्ञानको श्रुतज्ञान कहा है । 'शब्दयोजनासहित ज्ञान ध्रुतज्ञान हो होता है' इस विषयमें दिगम्बर पर. म्पराके किसी पक्षको आपत्ति नहीं है। किन्तु 'शब्दयोजनासहित ज्ञान ही श्रुतज्ञान होता है' इस विषयमें एक पक्षको आपत्ति है, जिसका निर्देश आचार्य विद्यानन्दके द्वारा किये गये अकलंकदेवके उक्त मतके विरोधमें मिलता है। किन्तु वह आपत्ति केवल दृष्टिभेदका परिणाम है, उसमें विशेष तथ्य नहीं है, यह बात भी विद्यानन्दके द्वारा किये गये अकलंक देवके समर्थनसे स्पष्ट हो जाती है। इसके लिए एक उदाहरण पर्याप्त है--एक मनुष्य बार-बार हाथको मुंहके पास ले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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