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________________ परोक्षप्रमाण स्वरूप क्या है ? वाचकपना, अथवा अनादि कालसे प्रयोगमें आना, अथवा धर्मका साधन होना, अथवा विशिष्ट पुरुषोंके द्वारा रचित होना, अथवा विशिष्ट अर्थका कहना, अथवा व्याकरणसे सिद्ध होना ? .. यदि शद्धताका स्वरूप वाचकपना है तो गौ आदि शब्दोंकी तरह गावो आदि शब्दोंमें भी वह स्वरूप है हो, क्योंकि अन्वय-व्यतिरेकके द्वारा गो आदि शब्दोंको तरह गावी आदि शब्द भी अर्थके प्रतिपादक हैं, यह ऊपर बतलाया जा चुका है । ___ यदि अनादि कालसे प्रयोगमें आना शुद्धताका स्वरूप है तो गौ और गावी शब्दमें कोई भेद नहीं रहता; क्योंकि दोनों ही प्रकारके शब्दोंका प्रयोग अनादि कालसे होता चला आता है। अत: या तो दोनों ही शब्द शुद्ध, हैं, या दोनों ही अशुद्ध हैं । तथा यदि अनादि कालसे प्रयुक्त होनेका नाम शुद्धता है तो प्राकृत गावी आदि शब्द ही शुद्ध कहे जायेंगे, क्योंकि प्राकृत शब्द ही अनादि कालसे प्रयुक्त होते आते हैं। 'प्रकृतिरेव प्राकृतम्' इस व्युत्पत्तिके अनुसार अर्थस्वरूपके बोधक स्वाभाविक गावी आदि शब्द ही अनादि कालसे प्रयुक्त होनेके कारण शुद्ध प्रमाणित होते हैं, संस्कृत गौ आदि शब्दोंका प्रयोग अनादि नहीं बनता। सत् वस्तुमें गुणान्तरका आरोप करनेका नाम संस्कार है। और संस्कार सादि ही होता है। अतः 'संस्कृत' कहनेसे ही यह प्रतीत होता है कि संस्कारसे पहले कोई प्राकृतिक वस्तु विद्यमान थी। वह प्राकृत भाषा ही है। अत: अनादिकालसे प्रयुक्त होनेके कारण वही 'साधु' ठहरती है। वैया०-'प्रकृतिरेव प्राकृतम्' यह व्युत्पत्ति ठीक नहीं है। किन्तु 'प्रकृतेभवं प्राकृतम्' अर्थात् प्रकृतिसे जो उत्पन्न हो वही प्राकृत है ? जैन-तो यही बतलाइए कि वह प्रकृति क्या वस्तु है जिससे प्राकृत उत्पन्न होती है ? प्रकृतिका मतलब ‘स्वभाव' है, अथवा धातुगण है, अथवा शब्दोंका संस्कृत रूप है ? __ यदि प्रकृतिका अर्थ स्वभाव है और उससे जो उत्पन्न हो वह प्राकृत है तब तो 'प्रकृतिरेव प्राकृतम्' हमारी की हुई यह व्युत्पत्ति ही आपने मान ली । यदि प्रकृतिसे मतलब धातुगण है तो 'गो' आदि शब्द भी प्राकृत कहे जायेंगे; क्योंकि धातुगणसे उनका स्वरूप बनता है। और ऐसा होनेपर संस्कृत व्यवहार समाप्त हो जायेगा तथा शन्दोंके संस्कृत रूपको प्रकृति नहीं कहा जा सकता, क्योंकि सत् वस्तुमें गुणान्तरके आरोप करनेका नाम संस्कार है। अतः संस्कार तो विकाररूप है, वह प्रकृति नहीं हो सकता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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