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________________ २७४ जैन न्याय का ज्ञान करता है। अतः जिन 'गावी' आदि शब्दोंके वाचक होनेका जन्मसे हो अनुभव है, उन शब्दोंसे अर्थका बोध करनेके लिए ऐसे संस्कृत शब्दोंके स्मरणको आवश्यक मानना, जिनके वाचक होनेका अनुभव नहीं है, वैयाकरणोंकी अपूर्व न्यायकुशलताका परिचायक है। ___ 'गो'शब्दका उच्चारण करनेके स्थानमें बालक अशक्ति अथवा प्रमादसे 'गावी' शब्दका उच्चारण करता है' यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि यदि बालक गोशब्दका उच्चारण करनेकी इच्छा होते हुए भी अशक्ति अथवा प्रमादसे 'गावी' शब्दका उच्चारण करता है तो प्रबुद्ध होनेपर उसे 'गावी' शब्दको त्याग कर 'गो'शब्दका हो व्यवहार करना चाहिए । किन्तु विद्वान होनेपर भी वह 'गावी' शब्दको छोड़कर 'गो' शब्दका व्यवहार नहीं करता। वैया०-संस्कृतका जानकार संस्कृतको न जाननेवाले मनुष्योंके साथ संस्कृत गौ आदि शब्दोंसे व्यवहार नहीं कर सकता, और संस्कृतके न जाननेवालोंकी संख्या ही अधिक है अतः अशक्ति और प्रमादसे उत्पन्न हुआ भी अपभ्रंश शब्दों. का व्यवहार रूढ़िमें आ गया है। इससे संस्कृत शब्दोंका जानकार मनुष्य भी उन्हीं शब्दोंसे व्यवहार करता है। ___ जैन-इस कथनका भी इसीसे खण्डन हो जाता है। जब आप गावी आदि शब्दोंके व्यवहारको प्रमाद और अशक्तिसे उत्पन्न हुआ मानते हैं तो उक्त दोषका अनुषंग बना ही रहता है। तथा आप 'गावी' आदि शब्दोंको अपभ्रष्ट क्यों कहते हैं ? वे पुरुषार्थमें सहायक नहीं हैं अथवा संकेतके द्वारा ही अपने अर्थको कहते हैं इसलिए उन्हें अपभ्रष्ट मानते हैं ? पहला पक्ष ठीक नहीं है क्योंकि प्राकृत शब्दोंके व्यवहारसे ही समस्त धर्म-अर्थ आदि पुरुषार्थ चलते हैं। ऐसा कोई पुरुषार्थ नहीं है जिसमें साक्षात् अथवा परम्परासे प्राकृत भाषाके शब्दोंका व्यवहार न होता हो। पुरुषार्थको समझानेके लिए जिन संस्कृत शब्दोंका प्रयोग किया जाता है उनका स्पष्ट अर्थ भी प्राकृत शब्दोंसे ही बतलाया जाता है। तब पुरुषार्थमें सहायक न होनेसे उन्हें अपभ्रष्ट कसे कहा जा सकता है ? दूसरा पक्ष भी ठीक नहीं है; क्योंकि प्राकृत शब्दोंकी तरह संस्कृत शब्द भी संकेतकी सहायतासे ही अर्थका प्रतिपादन करते हैं । इस प्रकार संस्कृत और प्राकृत शब्दोंमें कोई विशेषता नहीं है इसलिए या तो दोनोंको ही शुद्ध मानना चाहिए या दोनोंको ही अशुद्ध मानना चाहिए । तथा, यदि शुद्धताका स्वरूप-ज्ञान हो जाये तो यह कहा जा सकता है कि अमुक शब्द शुद्ध हैं और अमुक शब्द अशुद्ध हैं । अतः यह बतलाइए कि शुद्धताका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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