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________________ परोक्षप्रमाण शास्त्रोंको भाषा नियमबद्ध और नियम व्याकरणाधीन है। अतः व्याकरणके अप्रमाण ठहरनेपर यह सब कैसे बन सकेगा ? इसलिए शब्दोंके साधुत्वके ज्ञानके लिए व्याकरणको प्रमाण मानना आवश्यक है । अतः व्याकरणसे सिद्ध साधु शब्द ही अर्थके वाचक हैं, अपभ्रष्ट शब्द अर्थके वाचक नहीं हैं । अपभ्रंश प्राकृत आदिके शब्दोंको भी याचक माननेवाले जैनोंका उत्तरपक्षजैनोंका कहना है कि 'गो आदि शब्द ही शुद्ध हैं अतः वे ही वाचक हैं,' ऐसा कहना विचारपूर्ण नहीं है । वाच्यवाचक भाव लोकव्यवहार के अधीन है, और लोक गावी आदि शब्दोंसे हो व्यवहार चलता है। दूसरोंकी बात तो जाने दें, जो संस्कृतज्ञ हैं वे भी संस्कृत शब्दोंको छोड़कर व्यवहारके समय 'गावी' आदि शब्दों का ही व्यवहार करते देखे जाते हैं । अतः संस्कृतको जाननेवाले और न जाननेवालोंका व्यवहार 'गावी' आदि शब्दोंसे ही चलता देखा जाता है अतः अन्वयव्यतिरेक के द्वारा गावी आदि शब्दोंमें ही वाचकत्वका नियमन होता है । 'गावी' आदि शब्दों को सुनकर पहले शुद्ध 'गौ' शब्दकी स्मृति होती है फिर उससे अर्थका बोध होता है, स्वप्न में भी इस तरहकी प्रतीति नहीं होती । संस्कृत शब्दोंकी तरह प्राकृत शब्दोंसे भी साक्षात् हो अर्थका ज्ञान होता है । यदि ऐसा न हो तो जहाँ संस्कृतके जानकार नहीं हैं वहाँ भाषाशब्दोंसे अर्थका ज्ञान नहीं होगा । अतः 'गो' आदि शब्दोंकी तरह 'गावी' आदि शब्द भी शब्दान्तरकी स्मृतिकी सहायता के बिना ही अपने अर्थका ज्ञान कराते हैं इसलिए वे भी वाचक हैं। जैसे गो आदि शब्द गावी आदि शब्दोंकी स्मृतिको अपेक्षा किये बिना अन्वयव्यतिरेकके द्वारा गोत्व आदि अर्थोके वाचक होते हैं वैसे ही 'गावी' आदि शब्द भी 'गो' आदि शब्दोंकी स्मृतिकी सहायता के बिना ही अन्वयव्यतिरेकके द्वारा अपने अर्थोके वाचक होते हैं । इस प्रकार अन्वयव्यतिरेकके द्वारा जब दोनों ही प्रकारके शब्द समान रूपसे अर्थके वाचक हैं फिर भी यदि एक ही को अर्थका वाचक मानते हो तो 'गावी' आदि शब्दोंको ही अर्थका वाचक मानो, क्योंकि जनसाधारणका व्यवहार 'गावी' आदि शब्दोंसे ही चलता है । २७३ दूसरी बात यह है कि अनुभवमूलक स्मरण प्रमाण होता है क्योंकि अनुभवके अनुसार ही स्मरण होता है। किन्तु गो व्यवहारमें प्रथम ही 'गौ' आदि शब्दोंके वाचक होनेका अनुभव नहीं होता, बल्कि 'गावी' आदि शब्दोंके ही वाचक होनेका अनुभव होता है । अर्थात् जन्मसे ही प्रत्येक मनुष्य प्राकृत शब्दोंके द्वारा ही अर्थ १. न्या० कु० च० पृ० ७६२ । प्रमेयक० मा०, पृ० ६६८ । ३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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