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________________ जैन न्याय वैया०--गुणान्तरके आरोपका नाम संस्कार नहीं है, किन्तु अच्छी तरहसे न जाने गये शब्दका प्रकृति और प्रत्यय आदिका विभाग करके उसके अन्तर्गत अर्थको प्रकाशित करना ही शब्दका संस्कार है। _ जैन--प्रकृति और प्रत्ययके विभागके द्वारा अर्थको प्रकाशित करनेका नाम तो व्याख्या है, संस्कार नहीं। वस्त्र वगैरहमें इस तरहका संस्कार कभी नहीं देखा गया । किन्तु गुणान्तरका आरोप रूप संस्कार ही देखा जाता है । अतः अनादिकालसे प्रयुक्त होनेके कारण शन्दोंको शुद्धता सिद्ध नहीं होती। इसलिए शुद्धताका यह लक्षण भी ठीक नहीं है। धर्मका साधन होना भी शुद्धताका लक्षण नहीं हो सकता । यदि यह शुद्धताका लक्षण है तो शब्द साक्षात् धर्मके साधन हैं या परम्परासे धर्मके साधन हैं । यदि शब्द धर्मके साक्षात् साधन हैं तो उसके लिए प्रतोंका अनुष्ठान करना वगैरह व्यर्थ ठहरेगा। यदि परम्प. रासे धर्मके साधन हैं तो संस्कृत शब्दोंकी तरह प्राकृत शब्द भी परम्परासे धर्मके साधन हैं अतः उन्हें भी 'साधु' मानना चाहिए । यदि विशिष्ट पुरुषोंके द्वारा रचित होना अथवा विशिष्ट अर्थका कहना साधुत्व ( शुद्धता ) का लक्षण है तो ये दोनों बातें भी संस्कृत और प्राकृत शब्दोंमें समान हैं। व्याकरणसिद्ध होना भी संस्कृत शब्दोंकी तरह प्राकृत शब्दोंमें भी है ही। जैसे संस्कृत व्याकरणके द्वारा शब्दोंकी सिद्धि होती है वैसे ही प्राकृत व्याकरणके द्वारा भी शब्दोंकी सिद्धि होती है। यदि प्राकृत व्याकरण व्याकरण नहीं है तो संस्कृत व्याकरण भी व्याकरण नहीं हो सकता। तथा तैत्तिरीयोपनिषदें जो यह कहा है कि संस्कृत वाणी बोलनी चाहिए, सो कब बोलनी चाहिए-कर्मकालमें अथवा अध्ययनकालमें ? यदि अध्ययनकालमें संस्कृत वाणी बोलनी चाहिए तो संस्कृत भाषाके अध्ययनकालमें अथवा प्राकृत भाषाके अध्ययनकालमें ? प्राकृतभाषाके अध्ययनकालमें संस्कृत वाणी बोलनेसे प्राकृतभाषाका अध्ययन नहीं हो सकता। यदि संस्कृतभाषाके अध्ययनकालमें संस्कृत वाणी बोलनी चाहिए तो संस्कृत भाषाके अध्ययनकालमें प्राकृतभाषाके न बोलनेसे प्राकृतभाषा 'असाधु' कैसे हो सकती है ? यदि एकके अध्ययनकालमें दूसरेका प्रयोग न होनेसे दूसरा 'असाधु है तो पुराणका अध्ययन करते समय वेदवाक्योंका प्रयोग न होनेसे वेदवाक्य भी 'असाधु' ठहरेंगे । यदि कर्मकाल में संस्कृतवाणी बोलनी चाहिए तो हम पूछते हैं कि उस समय प्राकृत भाषा क्यों नहीं बोलनी चाहिए? प्राकृत शब्द क्या अर्थका कथन नहीं करते, अथवा वे अपशब्द हैं, अथवा अधर्मके कारण है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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