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जैन न्याय
हे वीर भगवान् ! आपका तीर्थ सर्वान्तवान् है - सामान्य विशेष, एक-अनेक, विधि - निषेध आदि परस्पर में विरुद्ध प्रतीत होनेवाले सब धर्मोंके समन्वयको लिये हुए है, साथ ही गौण और मुख्यकी कल्पनाको लिये हुए है अर्थात् अनेकधर्मात्मक वस्तु में से जो धर्म विवक्षित होता है वह मुख्य कहलाता है और जो अविवक्षित होता है वह गौण कहलाता है । इसीसे उसमें विरोधको स्थान नहीं है । किन्तु जो मत इस अपेक्षावादको स्वीकार नहीं करता और सर्वथा निरपेक्ष वस्तु धर्मको स्वीकार करता है, उसमें किसी भी धर्मका अस्तित्व बन नहीं सकता, अतः वह सब धर्मोसे शून्य हो ठहरता है । इसलिए आपका ही तीर्थ सब दुःखों का अन्त करनेवाला है, निरन्त है। उसका खण्डन करना शक्य नहीं है । अतः वह सबके अभ्युदयका कारण होनेसे सर्वोदय तीर्थ है ।
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सात भंगोंका उपपादन करते हुए कहा है
"विधिर्निषेधोऽनभिलाप्यता च त्रिरेकशस्त्रिद्विश एक एव ।
यो त्रिकल्पास्तव सप्तधा अभी स्याच्छब्दनेयाः सकलार्थभेदे ॥” [ युक्त्यनुशासन इलो० ४५ ] विधि, निषेध और अनभिलाप्यता अर्थात् स्यादस्त्येव, स्यान्नास्त्येव, स्यादवक्तव्य एव ये एक-एक करके तीन मूल विकल्प हैं । इनके साथ इनके विपक्षभूत धर्मको मिलानेसे द्विसंयोगी भंग तीन होते हैं - स्यादस्ति नास्त्येव, स्यादस्ति अवक्तव्य एव स्यान्नास्ति अवक्तव्य एव । और एक त्रिसंयोग भंग होता हैस्यादस्ति नास्ति अवक्तव्य एव । इस तरह ये सात भंग सम्पूर्ण अर्थभेदमें घटित होते हैं । और ये भंग स्यात् पदके द्वारा नेय हैं ।
इसी प्रकार अन्य पद्योंके द्वारा एकान्तवादी दर्शनोंके विविध मन्तव्योंका निराकरण करते हुए ग्रन्थकारने युक्त्यनुशासन नामको सार्थक सिद्ध किया है
"दृष्टागमाभ्यामविरुद्धमर्थप्ररूपणं युक्त्यनुशासनं ते ।"
[ युक्त्यनुशासन इलो० ४८ ] प्रत्यक्ष और आगमसे अविरुद्ध अर्थका प्ररूपण युक्त्यनुशासन है और आपको ही अभिमत है । तीसरा ग्रन्थ स्वयम्भू स्तोत्र चौबीस तीर्थंकरोंके स्तवनके रूपमें है किन्तु यह स्तवन भी दार्शनिक चर्चाओंसे ओतप्रोत है । उसमें भी पाँचवाँ सुमतिजिन स्तवन, नौवाँ सुविधिजिन स्तवन, ग्यारहवां श्रेयोजिन स्तवन, तेरहवाँ विमल जिन स्तवन और अट्ठारहवाँ अरजिन स्तवन विशेष महत्त्वपूर्ण हैं । इनमें स्याद्वाद,
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