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पृष्ठभूमि अर्थात् किञ्चित् कथञ्चित् कथञ्चन आदि स्याद्वादके पर्याय शब्द है। वह स्याद्वाद सर्वथा एकान्तोंका त्याग करके अर्थात् अनेकान्तको स्वीकार करके सात भङ्गों और नयोंकी अपेक्षासे हेय और उपादेयका भेदक है । अर्थात् स्याद्वादके बिना हेय और उपादेयकी व्यवस्था नहीं बन सकती।
समन्तभद्र स्वामीने स्याद्वादको श्रुतप्रमाण स्थापित करके उसके भेदोंको नय कहा है । यथा"स्याद्वादप्रविभक्तार्थविशेषव्यञ्जको नयः।"
[ आप्तमीमांसा श्लो० १०४ ] स्याद्वादके द्वारा गृहीत अर्थक विशेषोंको जो व्यक्त करता है उसे नय कहते हैं।
असलमें अनेकान्तात्मक अर्थका प्ररूपक स्याद्वाद है और उसीके फलित वाद सप्तभंगीवाद और नयवाद हैं। ये तीनों वाद जैनन्यायको ही विशेष देन हैं क्योंकि जैन दर्शन अनेकान्तवादी है और अनेकान्तवादका प्ररूपण स्याद्वादके बिना नहीं हो सकता। किन्तु स्याद्वादके द्वारा प्ररूपित अनेकान्तात्मक वस्तुमें-से जब कोई वक्ता या ज्ञाता किसी एक धर्मको मुख्यतासे वस्तुचर्चा करता है जैसे बौद्धदर्शन वस्तुको क्षणिक मानता है और अन्य दर्शन किसीको नित्य या किसीको अनित्य ही मानते हैं, तो यह एकान्तवादी दृष्टि नय है। किन्तु नय तभी सुनय है जब वह इतर दृष्टियोंसे निरपेक्ष न हो, अन्यथा वह दुर्नय कहा जायेगा क्योंकि वस्तु एकान्तरूप ही नहीं है। अतः निरपेक्ष प्रत्येक नय मिथ्या है किन्तु सब नयोंका सापेक्ष समूह मिथ्या नहीं है । यही बात समन्तभद्र स्वामीने कही है
"मिथ्यासमूहो मिथ्या चेन्न मिथ्र्यकान्ततास्ति नः । निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत् ॥"
[आप्तमीमांसा श्लो० १०४ ] समन्तभद्र स्वामीके दूसरे ग्रन्थ युक्त्यनुशासनमें ६४ पद्य हैं । उनके द्वारा भगवान् वर्धमान महावीरकी स्तुतिके व्याजसे एकान्तवादी दर्शनोंका निराकरण करते हुए महावीर भगवान्के मतको अद्वितीय और उनके तीर्थको सर्वोदय तीर्थ बतलाया है
"सर्वान्तवत्तद्गुणमुख्यकल्पं सर्वान्तशून्यं च मिथोऽनपेक्षम् । सर्वापदामन्तकरं दुरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ॥"
[ युक्त्यनुशासन श्लो० ६१ ]
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