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जैन न्याय
आगे इसे दृष्टान्त-द्वारा स्पष्ट करते हुए लिखा है
"घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् । शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् ॥"
[आप्तमीमांसा श्लो० ५९ ] एक राजाके पास सोनेका घड़ा है। राजपुत्रीको वह घड़ा प्रिय है । किन्तु राजपुत्र उसको तोड़कर मुकुट बनवाना चाहता है। जब घड़ेको तोड़कर मुकुट बना तो लड़कोको घटके नाशसे शोक हुआ, और राजपुत्रको मुकुट बनता देखकर प्रसन्नता हुई। किन्तु राजा मध्यस्थ रहा उसे न शोक हुआ न हर्ष; क्योंकि वह तो स्वार्थी था और सुवर्ण घट और मुकुट दोनों दशाओंमें वर्तमान था। अतः एक ही वस्तुको लेकर एक ही साथ तीन व्यक्तियोंके जो तीन प्रकारके भाव हुए वे सहेतुक हैं । इसलिए वस्तु त्रयात्मक है।
मीमांसक कुमारिलने भी समन्तभद्रके ही दृष्टान्तको उन्हीं के शब्दों में व्यक्त करते हुए सामान्यनित्यताको स्वीकार किया है
"वर्धमानकभङ्गे च रुचकः क्रियते यदा। तदा पूर्वार्थिनः शोकः प्रीतिश्चाप्युत्तरार्थिनः ॥ हेमार्थिनस्तु माध्यस्थ्यं तस्माद् वस्तु त्रयात्मकम् । नोत्पादस्थितिमङ्गानामभावे स्यान्मतित्रयम् ॥ न नाशेन विना शोको नोत्पादेन विना सुखम् । स्थित्या विना न माध्यस्थ्यं तेन सामान्य नित्यता ॥"
[मीमांसाश्लो० वा० श्लो० २१-२३ ] अर्थात् जब सोनेके प्यालेको तोड़कर उसकी माला बनायी जाती है तब प्यालेके अर्थीको शोक होता है, मालाके अर्थो को प्रसन्नता होती है, किन्तु सुवर्णक अर्थीको न शोक होता है और न प्रसन्नता। अतः वस्तु त्रयात्मक है । क्योंकि उत्पाद स्थिति और विनाश के अभावमें तीन प्रकारको बुद्धियां नहीं हो सकती - नाशके बिना शोक नहीं हो सकता, उत्पादके बिना सुख नहीं हो सकता और स्थितिके बिना माध्यस्थ्य नहीं हो सकता अतः सामान्य नित्य भी है।' समन्तभद्र स्वामीने स्याद्वादका लक्षण इस प्रकार किया है
"स्याद्वादः सर्वथैकान्तत्यागात् किंवृत्तचिद्विधिः । सप्तमङ्गानयापेक्षो हेयादेयविशेषकः ॥"
[ आप्तमीमांसा श्लो० १०४ ]
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