________________
पृष्ठभूमि
११ है। यदि ऐसा नहीं माना जाता तो कोई भी वादी इष्ट तत्त्वको व्यवस्था नहीं कर सकता; क्योंकि वस्तुकी व्यवस्था स्वरूपके उपादान और पररूपके त्यागपर ही निर्भर है । यदि वस्तुको स्वरूपकी तरह पररूपसे भी सत् माना जाये तो चेतनके अचेतन होनेका प्रसंग आता है। यदि वस्तुको पररूपकी तरह स्वरूपसे भी असत् माना जाये तो सर्वथा शून्यताका प्रसंग आता है। इस तरह आचार्य समन्तभद्रने सप्तभंगीके आद्य चार भंगोंका उपपादन करके लिखा है
"शेषमङ्गाश्च नेतव्या यथोक्तनययोगतः । न च कश्चिद्विरोधोऽस्ति मुनीन्द्र तव शासने ॥"
[आप्तमीमांसा इलो० २०]
शेष तीन अंग भी उक्त नययोजनासे लगा लेने चाहिए। हे मुनीन्द्र, आपके मतमें कोई विरोध नहीं है।
भावैकान्त और अभावैकान्तकी ही तरह आगे अद्वैतैकान्त, द्वैतैकान्त, नित्यैकान्त, अनित्यैकान्त, भेदैकान्त, अभेदैकान्त, दैववाद, पुरुषार्थवाद, हेतुवाद, आगमवाद आदि एकान्तवादोंकी समीक्षा करके अन्तमें नय दृष्टिसे सबका समन्वय करते हुए अनेकान्तवादको सर्वत्र स्थापना की है। इन एकान्तवादोंमें सम्भवतया उस समयके सभी दर्शनोंका समावेश हो जाता है और इस तरह समन्तभद्रने अनेकान्तवादको स्थापनाके व्याजसे सभी दर्शनोंकी समीक्षा की है।
पहले हम लिख आये हैं कि जैन दर्शन द्रव्यको गुणपर्यायात्मक मानता है उसीका विश्लेषणात्मक दूसरा लक्षण उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक है । अर्थात् वस्तु प्रतिसमय उत्पन्न होती है, नष्ट होती है और ध्रुव रहती है, इस तरह वह त्रयात्मक है । इसीको सिद्ध करते हुए समन्तभद्रने कहा है
"न सामान्यात्मनोदेति न व्येति व्यक्तमन्वयात् । व्येत्युदेति विशेषात्ते सहैकत्रोदयादि सत् ॥"
[आप्तमीमांसा श्लो० ५७ ] सामान्यरूपसे वस्तु न उत्पन्न होती है न नष्ट होती है; क्योंकि सामान्यरूप वस्तुको प्रत्येक दशामें स्पष्ट अनुस्यूत देखा जाता है । अतः अन्वयरूपसे वस्तु ध्रुव है । और विशेषरूपसे नष्ट होती और उत्पन्न होती है। अतः एक वस्तुमें उत्पाद आदि तीनों एक साथ रहते हैं। तीनोंके समुदायका नाम ही सत् है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org