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जैन न्याय ३. प्रमाणका दार्शनिक लक्षण और फले बतलाया। ४. स्याद्वादको परिभाषा स्थिर को। ५. श्रुत प्रमाणको स्याद्वाद और विशकलित अंशोंको नय बतलाया। ६. सुनय और दुर्नयकी व्यवस्था की।
आचार्य समन्तभद्रकी उपलब्ध रचनाओंमें दार्शनिक दृष्टि से तीन रचनाएँ उल्लेखनीय हैं - आप्तमीमांसा, युक्त्यनुशासन और स्वयम्भूस्तोत्र । इन तीनोंमें भी आप्तमीमांसा विशिष्ट कृति है। इसमें एक सौ चौदह कारिकाएँ या श्लोक हैं । अन्तिम कारिकामें कहा है कि सम्यक् और मिथ्या उपदेशोंके भेदको समझानेके लिए इस आप्तमीमांसाकी रचना की गयी। इसका प्रारम्भ इसके नामके अनुसार आप्तकी मीमांसासे होता है। पांचवीं कारिकामें अनुमान प्रमाणके द्वारा सर्वज्ञताकी सिद्धि करके छठी कारिकामें कहा है कि वह सर्वज्ञ जिनेन्द्रदेव, तुम ही हो क्योंकि तुम निर्दोष हो और तुम्हारे वचन युक्ति और शास्त्रसे अविरुद्ध हैं। और युक्ति और शास्त्रसे अविरुद्ध इसलिए हैं कि आपके द्वारा प्रतिपादित मोक्षादि तत्त्व प्रमाणसे बाधित नहीं होते, जब कि आपके मतसे बाह्य एकान्तवादियोंका एकान्त तत्त्व प्रत्यक्षसे बाधित है; क्योंकि एकान्तवादमें न तो परलोक ही बनता है और न पुण्य पाप कर्म ही बनते हैं। ___ इस प्रकारसे आदिकी आठ कारिकाओंके द्वारा भूमिका बाँधकर समन्तभद्रने सबसे प्रथम भावैकान्त और अभावैकान्तकी समीक्षा की है । उसके पश्चात् परस्पर निरपेक्ष उभयकान्त और अवाच्यैकान्तमें दोषापादन किया है । पुनः लिखा है
"कथंचित्ते सदेवेष्टं कथंचिदसदेव तत् । तथोमयमवाच्यं च नययोगान सर्वथा ॥"
आप्तमीमांसा श्लो. १४] हे जिनेन्द्र श्रापके मतमें वस्तु कथञ्चित् सत् ही है, कथञ्चित् असत् ही है, कथञ्चित् सत् असत् ही है और कथञ्चित् अवाच्य ही है । ऐसा नय दृष्टिसे है, सर्वथा नहीं।
अर्थात् न कोई सर्वथा सत् ही है, न सर्वथा असत् हो और न सर्वथा अवाच्य ही है । किन्तु स्वरूपकी अपेक्षा वस्तु सत् है और पररूपकी अपेक्षा वस्तु असत्
१. स्वपरावभासकं यथा प्रमाणं भुवि बुद्धिलक्षणम्-स्वयम्भू० श्लो० ६३ । २. 'उपेक्षा
फलमाघस्य शेषस्यादानहानधीः । १०२॥-पा० मी० । ३. प्रा० मी० श्लो० १०४ । ४. प्रा० मी० श्लो० १०६ ।
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