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पृष्ठभूमि
"सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः प्रत्यक्षाः कस्यचिद्यथा । अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरिति सर्वज्ञसंस्थितिः ॥"
[आप्तमीमांसा श्लो०५] 'सूक्ष्म परमाणु वगैरह, अन्तरित राम-रावण वगैरह और दूरवर्ती सुमेरु वगैरह पदार्थ किसीके प्रत्यक्ष हैं, अनुमेय होनेसे, जैसे अग्नि वगैरह । इस प्रकार सर्वज्ञकी सम्यक् स्थिति होती है।' इस कारिकाको पढ़नेसे शाबरभाष्यकी एक पंक्तिका स्मरण हो आता है।-"चोदना हि भूतं भवन्तं भविष्यन्तं सूक्ष्म व्यवहितं विप्रकृष्टमित्येवं जातीयकमर्थमवगमयितुमलम् ।” (शा० भा० १-१-२)
भाष्यके सूक्ष्म व्यवहित और विप्रकृष्ट शब्द तथा कारिकाके सूक्ष्म अन्तरित और दूर शब्द एकार्थवाची हैं। दोनोंमें बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव झलकता है। और ऐसा लगता है कि एकने दूसरेके विरोधमें अपना उपपादन किया है। शबर स्वामीका समय २५० से ४०० ई० तक अनुमान किया जाता है। स्वामी समन्तभद्रका भी यही समय है। विद्वान् जानते हैं कि मीमांसक वेदको अपौरुषेय और स्वतःप्रमाण मानते हैं। उनके मतानुसार वेद भूत, वर्तमान, भावि तथा सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्ट अर्थोका ज्ञान करानेमें समर्थ हैं। इसीसे वह किसी सर्वज्ञको नहीं मानते। किन्तु जैन वेदके प्रमाण्यको स्वीकार नहीं करते और जिनेन्द्रको सर्वज्ञ सर्वदर्शी मानते हैं । अतः समन्तभद्रने शाबर भाष्यके विरोध यदि सर्वज्ञकी सिद्धि हेतुवादके द्वारा को हो तो कोई अयुक्त बात नहीं है। शायद इसीसे शाबरभाष्यके व्याख्याकार कुमारिलने समन्तभद्रकी सर्वज्ञताविषयक मान्यताको खूब आड़े हाथों लिया है और उसका परिमार्जन अकलंकदेवने अपने न्यायविनिश्चयमें किया है।
इस प्रकार समन्तभद्रने जैन न्यायकी स्थापना करके उसे जो कुछ दिया उसे संक्षेपमें इस प्रकार कह सकते हैं१. जैन वाङ्मयके प्राण अनेकान्तवाद और उसके फलित सप्तभंगीवादकी
प्रक्रियाको प्रदर्शित करके दर्शनशास्त्रको प्रत्येक दिशामें उनका व्याव
हारिक उपयोग करनेकी प्रणालीको प्रचलित किया। २. अनेकान्तमें अनेकान्तको योजना करनेकी प्रक्रिया बतलायी। -
१. देखो आप्तमीमांसा । २. स्वयंभूस्तोत्र, श्लो० १०३ ।
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