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परोक्षप्रमाण
पूर्वक अनुष्ठान सिद्ध होनेपर धर्मविशेष सिद्ध हो। और धर्मविशेष सिद्ध होनेपर वेदार्थके ज्ञानका वैशिष्टय सिद्ध हो। अतः अतीन्द्रियदर्शी पुरुषको न माननेपर वेदार्थका ज्ञान नहीं बनता। ___मीमांसक-व्याकरण वगैरहके अभ्याससे लौकिक पदों और वाक्योंके अर्थका ज्ञान हो जानेपर वैदिक पदों और वाक्योंके अर्थका ज्ञान भी हो ही जायेगा; क्योंकि लौकिक और वैदिक पदोंमें कोई अन्तर नहीं है। और इसलिए वेदार्थको जाननेके लिए किसो अतीन्द्रियदर्शीको आवश्यकता नहीं है ? - जैन-लौकिक और वैदिक पदोंके एक होनेपर भी एक-एक पदके अनेक अर्थ होते हैं । अतः अन्य अर्थोंका निरास करके इष्ट अर्थका नियमन करना कि 'इसका यही अर्थ है' शक्य नहीं है। प्रकरण वगैरहको विचार करके भी इष्टः अर्थका नियमन नहीं किया जा सकता; क्योंकि प्रकरण वगैरह भी अनेक हो सकते हैं, जैसे द्विसन्धान नामक काव्यमें एक साथ दो कथाएँ चलतो हैं । ____तथा यदि लौकिक अग्नि आदि शब्दोंके समान होनेसे वैदिक अग्नि आदि शब्दोंका अर्थ जाना जाता है तो पौरुषेयत्वको दृष्टिसे भी समान होनेसे वैदिक शब्द पौरुषेय क्यों नहीं हैं । लोकिक अग्नि आदि शब्द पौरुषेय होते हुए भी अर्थवान् है। ऐसी स्थितिमें वैदिक अग्नि आदि शब्द लौकिक शब्दोंके पौरुषेयत्व धर्मको छोड़कर केवल उनका अर्थ ही कैसे ग्रहण कर सकते हैं ? या तो उन्हें लौकिक शब्दोंकी दोनों बातोंको ग्रहण करना चाहिए या एकको भी ग्रहण नहीं करना चाहिए। लौकिक और वैदिक शब्दोंके स्वरूपमें कोई अन्तर नहीं है, दोनों ही संकेत ग्रहणकी अपेक्षासे ही अर्थका प्रतिपादन करते हैं, दोनों ही उच्चारण न किये जानेपर सुनाई नहीं देते तब फिर अन्य कौन-सी विशेषता है जिसके कारण वैदिक शब्दों को अपौरुषेय और लौकिक शब्दोंको पौरुषेय माना जाये। अतः वेद अपौरुषेय नहीं है। ___स्फोटवादी वैयाकरणोंका पूर्वपक्ष-'वैयाकरणोंका कहना है कि वर्ण, पद और वाक्य अर्थके प्रतिपादक नहीं हैं किन्तु स्फोट ही अर्थका प्रतिपादक है। यदि वे अर्थके प्रतिपादक हैं तो समस्त वर्ण अर्थका प्रतिपादन करते हैं अथवा व्यस्त वर्ण भी अर्थका प्रतिपादन करते हैं। यदि व्यस्त वर्ण भो अर्थका प्रति-. पादन करते हैं तो एक वर्णसे भी गो आदि अर्थका ज्ञान हो जानेसे अन्य वर्गों का उच्चारण करना व्यर्थ है। यदि समस्त वर्ण अर्थका प्रतिपादन करते हैं तो यह.
१. न्या० कु. च०, पृ० ७४५ । स्फोट सि० का० २६, ३६ ।
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