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________________ जैन न्याय -सम्भव नहीं है, क्योंकि क्रमसे उत्पन्न और नष्ट होनेवाले वर्षों का सामस्त्य ( समूह ) होना असम्भव है। शायद आप कहें कि सब वर्ण एक साथ उत्पन्न हो जायेंगे अतः उनका समूह बन जायेगा। किन्तु यह कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि एक पुरुष सब वर्गों को एक साथ उत्पन्न नहीं कर सकता। और एक साथ उत्पन्न न कर सकनेका कारण यह है प्रत्येक वर्ष प्रतिनियत स्थान, प्रति. 'नियत करण और प्रतिनियत प्रयत्नसे उत्पन्न होता है। शायद आप कहें कि एक पुरुषने 'ग' शब्दका उच्चारण किया और दूसरे पुरुषने 'औ' शब्दका उच्चारण किया। दोनोंका समुदाय 'ग-औ' कर देनेसे उससे अर्थकी प्रतीति हो जायेगो ! किन्तु ऐसा कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि प्रतिनियत वर्णों की क्रमसे प्रतिपत्ति होनेके उत्तर कालमें ही शाब्दप्रतीति देखी जाती है। शायद कहा जाये कि अन्यवों की अपेक्षा न करके 'गो' शब्दमें अन्तिम वर्ण 'ओ' है वही अर्थका प्रतिपादक है, किन्तु ऐसा कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा माननेसे पूर्व 'ग' आदि वर्गों का उच्चारण व्यर्थ हो जायेगा। अतः समस्त अथवा व्यस्तवर्ण अर्थके प्रतिपादक (कहनेवाले) नहीं हैं। किन्तु 'गो' आदि शब्दोंको सुनकर श्रोताओं को अर्थकी प्रतीति होती है। अतः यह मानना पड़ता है कि अर्थको प्रतोतिमें हेतु एक स्फोट नामक तत्त्व है। प्रत्यक्षसे उसी. की प्रतीति होती है। क्योंकि विभिन्न आकारवाले वर्षों में होनेवाला अभिन्नाकार प्रत्यक्ष स्फोटके सद्भावको ही बतलाता है। तथा वह स्फोट 'नित्य है । यदि उसे अनित्य माना जायेगा तो संकेतकालमें अनुभूत स्फोटका उसी समय विनाश हो जानेसे कालान्तर तथा देशान्तरमें 'गो' शब्दको सुनकर उससे अर्थकी प्रतीति नहीं हो सकेगी, क्योंकि संकेतरहित शब्दसे अर्थकी प्रतीति होना असम्भव है। यदि बिना संकेत किये शब्दसे भी अर्थकी प्रतीति सम्भव हो तो द्वीपान्तरसे आये हुए मनुष्यको भी 'गो' शब्दके सुननेसे गायरूप अर्थकी प्रतीतिका प्रसंग उपस्थित होगा। तथा 'गो' शब्दका अर्थ गाय होता है इस प्रकारका संकेत ग्रहण करना भी व्यर्थ हो जायेगा। अत: नित्य एक अखण्ड स्फोट हो अर्थकी प्रतिपत्तिमें हेतु है। वर्णध्वनि उसको ही अभिव्यक्त करके नष्ट हो जाती है। उत्तरपक्ष-जनों का कहना है कि पूर्व वर्गों के नाशसे विशिष्ट अन्तिम वर्णसे ही अर्थका बोध हो जाता है, अथवा यह कहना चाहिए कि पूर्व वर्गों के ज्ञानके १. वाक्य० १११। २. न्या० कु० च०, पृ० ७५०-७५७ । प्रमे० क० मा०, पृ० ४५३-४५७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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