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परोक्षप्रमाण
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रचना देखकर यह कोई नहीं कहता कि यह अकृत्रिम है बल्कि सब यही कहते हैं कि यह किसी साधारण शिल्पीका काम नहीं है । अतः 'वेद अपौरुषेय है' इत्यादि अनुमान ठीक नहीं है ।
आता है, क्योंकि उसे वेदका होने के कारण ठीक नहीं है,
तथा जो यह कहा है कि 'वेदका अध्ययन गुरुसे अध्ययन कहते है' यह भी क्योंकि वेदका अध्ययन
अध्ययनपूर्वक ही होता अनैकान्तिक दोषसे दुष्ट अध्ययनान्तरपूर्वक न हो इसमें क्या विरोध है ? आशय यह है कि 'वेदका अध्ययन कहते हैं' इस हेतु में अध्ययन के साथ जो वेद विशेषण जोड़ा गया है, वह विशेषण यदि विपक्षसे विरुद्ध हो तो हेतुको विपक्ष में जानेसे रोकता है । उक्त अनुमानमें विपक्ष हैं वे सकर्तृक -ग्रन्थ जिनका अध्ययन गुरुसे अध्ययन किये बिना भी होता है । किन्तु वेदाध्ययनमें ' ऐसी कौन-सी विशेषता है जिससे स्वयं वेदाध्ययन नहीं किया जा सकता ? अत: सकर्तृक भारत के अध्ययनकी तरह सकर्तृक होनेपर भी वेदाध्ययन गुरुसे अध्य यन पूर्वक हो सकता है । इसलिए इससे वेदको अपौरुषेय सिद्ध नहीं किया जा
- सकता ।
अतः वेदके अपौरुषेयत्वका साधक कोई प्रमाण नहीं होनेसे उसे अपौरुषेय - कैसे माना जा सकता है ? जरा देरके लिए उसे अपौरुषेय मान भी लिया जाये तो यह प्रश्न पैदा होता है कि व्याख्यात वेद अपने अर्थका बोध कराता है या अव्याख्यात वेद अपने अर्थका बोध कराता है ? अव्याख्यात वेद तो अपने अर्थका ज्ञान नहीं करा सकता । अतः व्याख्यात वेद ही अपने अर्थका ज्ञान कराता है यही मानना पड़ता है । अब प्रश्न यह होता है कि वेद स्वयं अपना व्याख्यान करता है, या पुरुष उसका व्याख्यान करता है ?
प्रथम पक्ष तो ठोक
नहीं है; क्योंकि 'मेरे वाक्योंका यही अर्थ है, अन्य नहीं है' यह बात स्वयं वेद नहीं कह सकता । यदि वेद स्वयं ही अपने अर्थको बतलाता होता तो वेदके - व्याख्यान में मतभेद न होता । यदि पुरुषके द्वारा व्याख्यात वेद अपने अर्थको कहता है तो पुरुषके द्वारा किये गये व्याख्यानसे जो अर्थका ज्ञान होगा उसके - सदोष होने की आशंकाका निराकरण कैसे किया जायेगा। क्योंकि मनुष्य - रागादि दोषोंसे दूषित हैं, अतः वे विपरीत अर्थका कथन भी करते हुए देखे जाते हैं । यदि संवादसे प्रामाण्य स्वीकार करते हैं तो वेदके अपौरुषेयत्वको कल्पना - व्यर्थ हो जाती है क्योंकि वेदके पौरुषेय होनेपर भी संवादसे ही उसमें प्रामाण्य स्थापित होता है ।
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