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जैन न्याय
मोमांसक-वेदमें केवल कर्ता विशेषको लेकर ही विवाद नहीं किन्तु कर्ता सामान्यको लेकर भी विवाद है अतः वेदमें कर्तासामान्यका स्मरण भी अप्रमाण है। किन्तु कादम्बरी वगैरहमें तो कर्ताविशेषमें ही विवाद है अतः उसके कर्तासामान्यका स्मरण अप्रमाण नहीं है ?
जैन-जैन, बौद्ध वगैरह वेदके कर्ताका स्मरण करते हैं, मीमांसक नहीं करते। इस प्रकार कर्तामात्रमें विवाद होनेके कारण यदि कर्तमात्रका स्मरण अप्रमाण है तो कर्ताके स्मरणको तरह कर्ताका अस्मरण अप्रमाण क्यों नहीं है, विवाद तो दोनों हो पक्षोंमें है। अतः वेदको अपौरुषेय सिद्ध करनेके लिए दिया गया 'कर्ताके स्मरणका अभाव' रूप हेतु असिद्ध है। तथा विरुद्ध भी है क्योंकि उसीके कर्ताका स्मरण अथवा अस्मरण होता है जो कार्य होता है। कुछ कार्य ऐसे हैं जिनके कर्ताका स्मरण होता है, जैसे घर । और कुछ कार्य ऐसे हैं जिनके कर्ताका स्मरण नहीं होता, जैसे पुराने मकान वगैरह । अतः कर्ताके स्मरणका अभाव होनेसे वेद अपौरुषेय सिद्ध नहीं होता।
तथा जो यह कहा था कि 'जो जिस अर्थका अनुष्ठान करता है वह अवश्य उसके कर्ताका स्मरण करता है, वह भी ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा कोई नियम नहीं है। कर्ताका स्मरण किये बिना ही उनके वचनोंसे अनुष्ठान करते हुए देखा जाता है। अतः महाभारत आदिकी तरह हो वेद भी पौरुषेय है क्योंकि वह पदवाक्यात्मक रचना रूप है।
वेदकी रचनाको जो अन्य रचनाओंसे विलक्षण कहा गया है सो उसमें क्या विलक्षणता है ? उसका उच्चारण करना बहुत कठिन है, अथवा सुनने में वह बड़ा विचित्र लगता है, अथवा उसकी शब्दरचना लोकप्रसिद्ध व्याकरणशास्त्रसे विलक्षण है, अथवा उसके छन्द विचित्र है, अथवा उसमें अतीन्द्रिय वस्तुओंका कथन है अथवा उसमें महाप्रभावशाली मन्त्र पाये जाते हैं ? ये सभी बातें पुरुषोंके लिए दुष्कर नहीं हैं तथा पुरुषरचित होनेसे ही मन्त्र महाप्रभाव शाली होते हैं । अत्यन्त प्रभावशाली पुरुषके द्वारा 'अमुक मन्त्रसे इसको इस फलको प्राप्ति हो' ऐसा अनुसन्धान करके जिस-किसी भाषामें जब मन्त्रका प्रयोग किया जाता है तो उस पुरुषके प्रभावके कारण ही उस मन्त्रमें उस प्रकारका कार्य करनेकी सामर्थ्य होती है। आज भी महाप्रभावशाली मन्त्रवादीके आज्ञा देनेसे ज्वर आदिका उच्चाटन तथा विषका अपहार होता देखा जाता है ।
तथा, वेदकी विशिष्ट रचनाको देखनेसे उस प्रकारकी रचना करने में असमर्थ कर्ताका ही निराकरण होता है, न कि कर्तामात्रका । प्राचीन खण्डोंकी विशिष्ट
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