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________________ परोक्षप्रमाण स्मरणका अभाव जाननेके लिए सब देशोंमें जाना जरूरी है। अब सब देशोंमें जानेपर और वहाँके लोगोंसे पूछनेपर यदि वे लोग कहें भी कि हमें वेदके कर्ताका स्मरण नहीं है तो भी उन मनुष्योंका यह विश्वास कैसे किया जाये कि वे सब सच कहते हैं ? उन सबकी आप्तताका ज्ञान होना तो सम्भव नहीं है। तथा मीमांसकोंका यह भी कथन है कि अभावप्रमाणको प्रवृत्ति वहीं होती है जहाँ वस्तुका अस्तित्व जाननेवाले पाँचों प्रमाणोंकी प्रवृत्ति नहीं होती। किन्तु जब वेद स्वयं ही अपने कर्ताका अस्तित्व बतलाता है तो उसमें अभावप्रमाणकी प्रवृत्ति कैसे हो सकती है। ‘स हि रुद्रं वेदकर्तारम' ( वेदका कर्ता रुद्र है ) 'यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्व वेदांश्च प्रहिणोति' (जो पहले ब्रह्माको रचता है फिर वेदोंको रचता है ), 'तथा प्रजापतिः सोमं राजानमन्वसृजत, ततः त्रयो वेदाः अन्वसृज्यन्त' (प्रजापतिने सोम राजाको रचा, फिर तीनों वेद रचे) इत्यादि श्रुति वेदके कर्ताको बतलाती है । तथा पौराणिक ब्रह्माको वेदका कर्ता बतलाते हैं, योग महेश्वरको वेदका कर्ता कहते हैं और जैन उसे कालासुरको कृति बतलाते हैं। तथा स्मृति-पुराण आदिको तरह वेदकी शाखाएँ ऋषियोंके नामसे अंकित हैं जैसे काण्व, माध्यन्दिन्न, तैत्तिरीय आदि । इनके ऋषिनामांकित होनेका क्या कारण है ? जिन ऋषियोंके नामसे ये शाखाएँ अंकित हैं वे उनके कर्ता थे, अथवा द्रष्टा थे अथवा उन्होंने उनका प्रकाश किया था ? प्रथम पक्षमें वे अपौरुषेय कैसे हुई अथवा उनके कर्ताका अ-स्मरण कहाँ रहा ? शेष दो पक्षोंमें यदि कण्व आदि ऋषियोंने नष्ट हुई अथवा विस्मृत हुई वेदकी शाखाओंको देखा अथवा उन्हें प्रकाशित किया तो फिर उन शाखाओंकी परम्परा अविच्छिन्न कहाँ रही और कैसे मीमांसक अतीन्द्रियदर्शी पुरुषका निषेध करते हैं ? मीमांसक-अविच्छिन्न शाखाओंको ही उन-उन सम्प्रदायोंने देखा अथवा प्रकाशित किया ? जैन-तो फिर जितने उपाध्यायोंने शाखाको देखा या प्रकाशित किया उन सबके नामसे वह शाखा अंकित होनी चाहिए। मीमांसक-यद्यपि योग वगैरह वेदका कर्ता मानते हैं, किन्तु 'कर्ता कौन है ?' इसमें विवाद है । अतः उनका कर्तृस्मरण अप्रमाण है ? जैन-तो विवाद इसमें है कि कर्ता कौन है ? न कि कर्ताके होने और न होने में ? ऐसी स्थितिमें कर्ताविशेषका स्मरण ही अप्रमाण हो सकता है, न कि कर्तामात्रका स्मरण । अन्यया कादम्बरी वगैरह ग्रन्थोंके भी कर्ताविशेषको लेकर विवाद है अतः वह भी अपौरुषेय हो जायेंगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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