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जैन न्याय
उत्तर- जिस वचनकी पदरचना पुरुषकृत होती है उसका प्रामाण्य अथवा अप्रामाण्य पुरुषकी प्रमाणता अथवा अप्रमाणतापर निर्भर है । किन्तु वेदकी रचना तो नित्य है वह अपनी सामर्थ्य से ही अपने अर्थका ज्ञान कराने में समर्थ है। अत: उसका प्रामाण्य पुरुषके प्रामाण्य पर निर्भर नहीं है । अतः नित्य वेद स्वतः ही प्रमाण है ।
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उत्तरपक्ष – वेदके अपौरुषेयत्वकी समीक्षा - जैनोंका कहना है कि 'वेद अपौरुषेय है; क्योंकि स्मरण योग्य होते हुए भी उसके कर्ताका स्मरण नहीं होता, इत्यादि कथन समीचीन नहीं है; क्योंकि कर्ताका स्मरण नहीं होनेका आशय यदि 'कर्ता के स्मरणका अभाव है तो हेतु व्यधिकरणासिद्ध ठहरता है अर्थात् साध्य भिन्न अधिकरणमें रहता है और हेतु भिन्न अधिकरणमें रहता है; क्योंकि कर्ताके स्मरणका अभाव तो आत्मा में रहता है और साध्य अपौरुषेयत्व वेदमें रहता है । तथा हेतु अज्ञातसिद्ध भी है; क्योंकि उसका ग्राहक कोई प्रमाण नहीं है । कर्ताक स्मरणका अभाव प्रत्यक्षका तो विषय नहीं हो सकता; क्योंकि प्रत्यक्ष तो नियत रूपादिको ही जान सकता है, अभावको नहीं जान सकता । यदि प्रत्यक्ष अभावको भी जान लेगा तो मोमांसकों के अभाव प्रमाणकी कल्पना निरर्थक ही हो जायेगी । यदि अभावप्रमाण 'कर्ता के स्मरणके अभाव को जानता है तो मीमांसकके मतानुसार अभावप्रमाणको प्रवृत्तिके लिए सबसे प्रथम निषेध्य कर्तृस्मरण के अभावका आधारभूत वस्तुका ग्रहण होना जरूरी है । अतः यह बतलाइए कि कर्ताके स्मरणके अभावका आधार कौन है स्वात्मा अथवा सारे प्रमाता ( जाननेवाले ) ? यदि स्वात्मा है तो 'मेरी आत्मामें वेदके कर्ताका स्मरण नहीं है' क्या इतने से ही कर्ता स्मरणका अभाव सिद्ध हो जायेगा ? अनेक पदार्थोंका स्मरण मेरी आत्मामें नहीं है, किन्तु इससे उन सबका अभाव सिद्ध नहीं होता । यदि कर्ताके स्मरणके अभावका आधार सारे प्रमाता जन हैं तो 'तीनों लोकोंके प्रमाता गण वेदकर्ताका स्मरण नहीं करते' यह बात असर्वज्ञ व्यक्ति नहीं जान सकता और यदि कोई जानता है तो सर्वज्ञताका प्रसंग आता है ।
तथा सब देशों में जाकर और वहाँके प्रमाताओंसे पूछकर उन सब देशों में कर्ताके स्मरणका अभाव जाना जाता है, या बिना वहाँ जाये ही ? बिना वहाँ जाये ही कर्ताके स्मरणका अभाव जान लेना तो मीमांसक मतके विरुद्ध है; क्योंकि मीमांसाश्लोकवार्तिक ( अर्था, श्लो० ३७) में कहा है कि 'उन-उन देशों में जानेपर भी यदि वह अर्थ न मिले तो उसे असत् मानना चाहिए' अतः कर्ताके
१- न्या० कु० च०, १० ७२४ ७३६ । प्रमेयक० मा०, पृ० ३६१-४०३ ।
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