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परोक्षप्रमाण
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आवृत होना नहीं बन सकता । और ऐसा मानने से शब्द नित्यैकस्वभाव नहीं रहता, तथा जैसे दोपकके व्यापारसे पहले स्पर्शन प्रत्यक्षसे अन्धकार में घटका अस्तित्व सिद्ध है, वैसे ही व्यंजकके व्यापारसे पहले यदि किसी प्रमाणसे शब्दका अस्तित्व सिद्ध हो तो शब्दका आवृत होना सिद्ध हो सकता है, किन्तु व्यंजक के व्यापार से पहले किसी प्रमाणसे शब्दका सद्भाव सिद्ध नहीं होता ।
थोड़ी देर के लिए शब्दोंका आवरण मान भी लिया जाये तो वह आवरण दृश्य है अथवा अदृश्य है, नित्य है अथवा अनित्य है, व्यापक है अथवा अव्यापक हैं, एक है अथवा अनेक है ? वह आवरण दृश्य नहीं है; क्योंकि प्रत्यक्ष प्रमाणसे उसकी प्रतीति नहीं होती । यदि होती तो फिर उसमें किसोको कोई विवाद ही न होता । यदि आवरण अदृश्य है तो उसका अस्तित्व कैसे स्वीकार किया जा सकता है ?
मीमां०- नित्य सत् शब्दके उच्चारणसे पहले अनुपलब्ध होनेमें और कोई कारण नहीं हो सकता । इसलिए अदृश्य होते हुए भी आवरणको ही उसका कारण मानना पड़ता है ।
जैन - इसमें तो अन्योन्याश्रय नामका दोष आता हैं-शब्दका आवरण सिद्ध होनेपर नित्य सत् शब्दको उच्चारणसे पहले अनुपलब्धि सिद्ध होतो हैं । और उसके सिद्ध होनेपर आवरणकी सिद्धि होती है ।
यदि आवरण नित्य है तो शब्दकी उपलब्धि कभी भी नहीं हो सकेगी। यदि आवरण अनित्य है तो एक बार उसके नष्ट हो जानेपर पुनः उसके उत्पन्न होने का कोई कारण नहीं है । अतः सदा सबको शब्दको उपलब्धिका प्रसंग आता है । आवरणका व्यापक होना तो सम्भव ही नहीं है; क्योंकि आवरण रूपसे मानी गयो वायु अव्यापक है । यदि आवारक वायुको व्यापक माना जायेगा तो आवार्य शब्द और आवारक वायु, दोनोंके ही व्यापक होनेसे कौन किसका आवारक होगा ? तथा, यदि सब शब्दोंका एक ही आवरण है तो एक शब्दकी उपलब्धि होनेपर सब शब्दोंकी उपलब्धिका प्रसंग आता है; क्योंकि विवक्षित शब्द के आवरणका विनाश होनेपर एक शब्दकी तरह सभी शब्द निरावरण हो जायेंगे । यदि आवरणका विनाश होनेपर सब शब्दोंकी उपलब्धि नहीं होती तो विवक्षित शब्दकी भी उपलब्धि नहीं होनी चाहिए। सब शब्दोंके विभिन्न आवरण मानना भी उचित नहीं है; क्योंकि व्यापक होनेसे जब सब शब्दोंका एक ही देश है और एक ही इन्द्रियसे सबका ग्रहण होता है तो आवरणभेद और व्यंजकभेद नहीं बनता ।
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