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जैन न्याय
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उससे गकारका एकत्व सिद्ध नहीं अथवा कट जानेके पश्चात् पुनः इत्यादि प्रत्यभिज्ञानोंसे दीपक और नखोंका एकत्व सिद्ध हो सकता है ?
किया जा सकता। उत्पन्न हुए नखोंमें
मीमां०- दीपकके कारण तेल आदिका उत्तरोत्तर क्षय देखा जाता है, अतः इसलिए दीपक एक
दीपक आदिका क्षण-क्षण में अन्य अन्य होना प्रसिद्ध ही है, नहीं हो सकता, किन्तु शब्द में ऐसी बात नहीं है ।
क्या 'यह वही दीपक है' 'यह वही पुराना नख है'
जैन - शब्द के कारण तालु आदिका संयोग विभाग वगैरहका भी उत्तरोत्तर क्षय देखा जाता है, अतः शब्द भी प्रतिसमय अन्य अन्य होता है, इसलिए शब्द एक नहीं है ।
मीमां०- तालु आदिका संयोग और विभाग शब्दको व्यक्त करनेवाली वायुको उत्पन्न करता है शब्दको नहीं ?
जैन-तो, बत्ती, तेल और आगके किन्तु दीपकको व्यक्त करनेवाली वायु दोनों में कोई अन्तर नहीं है ।
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संयोगसे भी दीपक उत्पन्न नहीं होता, उत्पन्न होती है, यह भी मान लीजिए ।
अतः प्रत्यभिज्ञानसे शब्दकी नित्यता सिद्ध नहीं होती। क्योंकि प्रत्यक्ष से हम शब्दको नष्ट होते और उत्पन्न होते देखते हैं । प्रत्येक प्राणीको इन्द्रिय व्यापार के पश्चात् ही यह प्रतीति होती है कि उत्पन्न हुआ शब्द नष्ट हो गया । शायद कहा जाये कि यह प्रतीति उक्त प्रत्यभिज्ञानसे बाधित क्यों नहीं है ? हम ऊपर कह आये हैं 'यह वही शब्द हैं' यह प्रत्यभिज्ञान सादृश्यमूलक होनेसे मिथ्या है । अत: वह शब्दको नित्य सिद्ध नहीं कर सकता। यदि शब्द नित्य है तो उच्चारणसे पहले उसका अनुपलम्भ क्यों होता है ? इन्द्रियका अभाव होनेसे, अथवा शब्द के निकट न होनेसे, अथवा शब्द के आवृत ( ढका हुआ ) होनेसे ? पहला पक्ष ठीक नहीं है; क्योंकि उच्चारणके पश्चात् शब्दकी उपलब्धि होती है । यदि इन्द्रियका अभाव होनेसे शब्दकी अनुपलब्धि होती तो उच्चारणके पश्चात् भी शब्दका ज्ञान नहीं होना चाहिए था । शायद कहा जाये कि उच्चारणसे पहले शब्दकी ग्राहक श्रोत्र इन्द्रिय नहीं थी, उच्चारणके समय ही शब्दके साथ इन्द्रिय उत्पन्न हो जाती है, किन्तु यह बात तो प्रतीतिविरुद्ध है । दूसरा पक्ष भी नित्य और व्यापक है तो वह सर्वत्र ही पाया ठीक नहीं है; क्योंकि जब शब्द नित्य और एक स्वभाव है तो वह आवृत नहीं हो सकता । दृश्य स्वभावको छोड़कर अदृश्य स्वभावको स्वीकार किये बिना शब्दका
ठीक नहीं है; जाना चाहिए।
क्योंकि जब शब्द तीसरा पक्ष भी
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