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जैन न्याय
शब्दको नित्य माननेवाले मीमांसकका पूर्वपक्ष -मीमांसक का कहना है कि यदि शब्दको अनित्य माना जायेगा तो वह उत्पन्न होते ही नष्ट हो जायेगा । ऐसी स्थिति में जिस शब्द में संकेत ग्रहण किया है वह शब्द व्यवहारकालमें नहीं रह सकेगा । और ऐसा होनेसे शब्द अर्थका प्रतिपादक नहीं हो सकेगा । इसके विपरीत शब्दको नित्य माननेपर जो शब्द संकेतकालमें है वही व्यवहारकालमें भी बना रहेगा । अतः वह अर्थका प्रतिपादन कर सकेगा ।
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प्रमाणसे भी शब्दकी नित्यता ही सिद्ध होती है । 'वही यह 'ग' है' इत्यादि प्रत्यभिज्ञा' नामक प्रत्यक्षसे शब्दोंकी नित्यताको प्रतोति होती है । यह प्रत्यभिज्ञान न तो अज्ञान रूप है, क्योंकि प्रत्येक प्राणीको 'यह वही शब्द है' इस प्रकारका प्रत्यभिज्ञान होता है, न संशयरूप ही है; क्योंकि जो ज्ञान दोलायमान होता है उसे संशय कहते हैं । किन्तु यह ज्ञान तो एक अंशको ही विषय करता है । न यह मिथ्याज्ञान ही है । जो ज्ञान बाधित होता है वही मिथ्या होता है । जैसे सीपमें होनेवाला चाँदीका ज्ञान । किन्तु यह ज्ञान तो निर्बाध है ।
श्रोत्रेन्द्रिय से ही 'यह वही 'ग' है' यह ज्ञान उत्पन्न होता है । अतः यह प्रत्यक्ष ही है । शायद कहा जाये कि यह ज्ञान स्मरणपूर्वक होता है इसलिए प्रत्यक्ष नहीं है । किन्तु ऐसा कहना युक्त नहीं है। यद्यपि यह ज्ञान स्मरणपूर्वक ही होता है फिर भी इन्द्रिय और अर्थका सम्बन्ध होनेपर ही होता है । इसलिए यह प्रत्यक्ष ही है ।
इस प्रकार प्रत्यभिज्ञानसे शब्द के नित्य सिद्ध होनेपर शब्दका उच्चारण उसका जनक नहीं है, किन्तु अभिव्यंजक है । अर्थात् उच्चारण करनेसे पूर्वं विद्यमान शब्द व्यक्त हो जाता है । अतः उसके आधारपर हम यह अनुमान कर सकते हैं - पूर्वकाल में भी शब्दका उच्चारण उसका अभिव्यंजक था, उच्चारण होनेसे । जो-जो उच्चारण होता है, वह वह शब्दका व्यंजक होता है । जैसे इस कालमें किया जानेवाला उच्चारण । पूर्वकालका उच्चारण भी चूँकि उच्चारण है, अतः वह भी शब्दका व्यंजक ही था । तथा विवादग्रस्त कालमें भी यही गकार आदि थे, क्योंकि वह भी काल है, जैसे वर्तमानकाल | अतः अनुमान प्रमाणसे भी शब्दकी नित्यता सिद्ध होती है । तथा क्योंकि श्रवणेन्द्रियका विषय है । जो-जो श्रवणेन्द्रियका विषय
१. न्या० कु० च०, पृ० ६६७ । मी० श्लो०, शब्दनि०, श्लो० ३ । २. शावर भा० १११।२० वृहती० १|१|१८ । मी० श्लो० शब्दा० श्लो० ३३ ।
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शब्द नित्य है; होता है वह वह
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