SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 268
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परोक्षप्रमाण .. २५३ किसोको भी शब्दार्थ मत मानो। तथा, गो शब्दसे यदि केवल गोत्वकी प्रतीति होती है तो 'गो' शब्दको सुनकर किसी भी व्यक्तिमें प्रवृत्ति नहीं बनती; क्योंकि व्यक्तिको प्रतीति उससे नहीं होती। जिसकी प्रतीति होनेपर भी जो प्रतीत नहीं होता, उसको प्रतोतिसे उसमें प्रवृत्ति नहीं होगी। जैसे जलकी प्रतीति होनेपर अग्निको प्रतीति नहीं होगी। अत: जलकी प्रतीतिसे अग्निमें प्रवृत्ति नहीं होती। वैसे ही गो शब्दसे गोत्व मात्रको प्रतीति होनेपर भी खण्डी, मुण्डी आदि व्यक्तिविशेषोंकी प्रतोति नहीं होती। अतः गोशब्दको सुनकर उनमें प्रवृत्ति नहीं हो सकती। यदि गो शब्दसे प्रतीयमान गोत्व गोव्यक्तिसे सम्बद्ध ही प्रतीत होता है तो फिर सामान्य हो शब्दार्थ नहीं सिद्ध होता। क्योंकि शब्दसे विशेषण-विशेष्य भावसे युक्त सामान्य और विशेषको प्रतीति होती है । मीमांसक-गो शब्दसे साक्षात् प्रतीति तो गोत्व सामान्यकी ही होती है, किन्तु सामान्य व्यक्तिके बिना नहीं रहता, अतः उसको अन्यथानुपत्ति से ही व्यक्तिकी प्रतीति होती है। जैन-तब तो जाति ही शब्दार्थ हआ, क्योंकि व्यक्तिकी प्रतीति तो अर्थापत्ति प्रमाणसे होती है। ऐसी स्थिति में लक्षणाके द्वारा शब्द विशेषका प्रतिपादक नहीं हो सकता। मीमांसक-यह शब्दका ही आन्तरिक कार्य है कि वह सामान्यको कहकर सामान्यको प्रतिपत्ति में सहायक व्यक्तिका भी लक्षणाके द्वारा बोध करा देता है । __ जैन-ऐसा कहना समुचित नहीं है; क्योंकि संकेतके स्मरणकी सहायतासे जहाँ शब्दकी प्रवृत्ति होती है वहीं उसका अर्थ है, किन्तु उस अर्थके अविनाभावीके रूपमें जिस-जिसको प्रमाणान्तरसे प्रतीति होती हो उन सबको शब्दके उदरमें डालना उचित नहीं है। यदि ऐसा किया जायेगा तो प्रत्यक्षसिद्ध धूमकी अन्यथानुपपत्तिसे जानी गयो अग्निको भी प्रत्यक्ष सिद्ध मानना पड़ेगा। अतः जो प्रमाणसे वस्तुको व्यवस्था करना चाहते हैं उन्हें जो जिससे जैसे प्रतिभाषित होता है उसे उसका विषय मानना चाहिए। जैसे चक्षु आदिसे होनेवाले ज्ञानमें नील आदि रूपसे रूपका प्रतिभास होता है अतः वही उसका विषय है। उसी तरह गो आदि शब्दोंसे गौ आदि वस्तुका प्रतिभास होता है। अत: वही उस शब्दका विषय है, सामान्य मात्र उसका विषय नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy