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जैन न्याय
शब्द विशेषणको कहता है फिर विशेष्यको कहता है' इस प्रकार शब्दका व्यापार नहीं होता । शब्द एक साथ हो विशेषण और विशेष्यका कथन करता है । तथा, यदि शब्दसे सामान्यकी ही प्रतीति होती है तो सामान्यसे व्यक्तिकी प्रतीति होनेका क्या कारण है ।
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मीमांसक - व्यक्ति के साथ सामान्यका सम्बन्ध है । अतः शब्दसे प्रतीत सामान्यसे लक्षण के द्वारा व्यक्तिको प्रतीति होती है ।
जैन - तो व्यक्ति के साथ सामान्यका क्या सम्बन्ध है ? संयोग है अथवा समवाय है, अथवा तदुत्पत्ति सम्बन्ध है, या तादात्म्य सम्बन्ध है ? संयोगसम्बन्ध तो नहीं हो सकता; क्योंकि संयोगसम्बन्ध द्रव्यका द्रव्यके साथ ही होता है, किन्तु सामान्य द्रव्य नहीं है । समवाय सम्बन्ध भी नहीं हो सकता; क्योंकि मीमांसक समवाय सम्बन्ध नहीं मानते । इसीलिए सामान्य और विशेष में तदुत्पत्ति सम्बन्ध भी नहीं है; क्योंकि इन दोनोंमें कार्यकारण भाव नहीं है । यदि दोनोंमें तादात्म्य सम्बन्ध मानते हैं तब तो एक ही 'गौ' शब्दसे सामान्य- विशेषकी विशेषण - विशेष्य रूपसे एक साथ प्रतोति होनेसे केवल सामान्यको ही शब्दार्थ मानना उचित नहीं है ।
तथा शब्दप्रयोग के समय ही जाति और व्यक्तिके सम्बन्धकी प्रतीति होती है, अथवा पहले । प्रथम पक्ष ठीक नहीं है; क्योंकि शब्दोच्चारणके कालमें व्यक्तिकी प्रतीति नहीं होती, यदि होती है तो फिर लक्षणाकी क्या आवश्यकता है ? यदि शब्दोच्चारण कालसे पहले जाति और व्यक्तिका तादात्म्य सम्बन्ध प्रतीत हुआ है तो होवे, किन्तु यह इसका मतलब नहीं है कि उन दोनोंका सर्वत्र सर्वदा सम्बन्ध होना ही चाहिए । यदि ऐसा माना जायेगा तो कभी कहीं पर पटका शुक्लरूपके साथ तादात्म्य देखनेसे सर्वत्र सर्वदा उनका तादात्म्य भाव मानना होगा ।
मीमांसक - जातिका यही स्वरूप है कि वह व्यक्ति में रहती है ।
जैन -- यदि व्यक्ति में रहना ही जातिका स्वरूप है तो वह जाति सर्वव्यापक है अथवा व्यक्तिमात्रमें व्यापक है ? प्रथम पक्ष तो ठीक नहीं है; क्योंकि जातिका रूप व्यक्तिनिष्ठ होता है अतः व्यक्तियोंके अन्तरालमें जातिका अभाव मानना होगा क्योंकि वहाँ व्यक्तिके न होनेसे जातिके स्वरूपका अभाव है। दूसरे पक्ष में व्यक्तिकी तरह जाति भी अनेक माननी होगी । और तब जाति और व्यक्ति में कोई भेद न होने से या तो दोनोंको ही शब्दार्थ मानना होगा, अथवा दोनोंमें-से
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