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________________ परोक्षप्रमाण २५१ वैसे ही सदृशपरिणामसे युक्त वाच्य और वाचकोंके अनन्त होनेपर भी तर्कप्रमाणसे उन सबका ग्रहण सम्भव है। शब्द और अर्थके नित्य सम्बन्धका निषेध करते समय तथा अपोहका खण्डन करते समय इसपर प्रकाश डाला गया है । अत: 'जो असर्वज्ञ है वह समस्त विशेष व्यक्तियोंको एक साथ जानता है अथवा क्रमसे जानता है' इत्यादि कथन खण्डित हो जाता है; क्योंकि तर्कप्रमाणके द्वारा असर्वज्ञ व्यक्ति भी समस्त विशेषोंको ग्रहण कर सकता है। तथा 'जातिको कहकर शब्द व्यक्तिको कहता है' इत्यादि कथन भी ठोक नहीं है; एक ही साथ एक ही ज्ञानमें जाति और व्यक्तिका प्रतिभास सम्भव है । शायद कहा जाये कि यदि जाति और व्यक्तिका प्रतिभास एक ही ज्ञानमें एक साथ होता है तो उसमें यह नियम नहीं बनेगा कि जाति विशेषण है और व्यक्ति विशेष्य है अथवा विशेषण भी विशेष्य रूप हो जायेगा। किन्तु ऐसा कथन भी उचित नहीं है एक ज्ञानमें एक साथ दण्ड और पुरुषकी प्रतीति होनेपर भी 'दण्ड ही विशेषण है और पुरुष ही विशेष्य है' यह नियम बराबर प्रतीत होता है । 'यह पुरुष डण्डा लिये हुए हैं इस प्रकारकी प्रतीतिका नाम ही तो विशेषणविशेष्य भावकी प्रतीति है। तथा जैसे चासे होनेवाले ज्ञानमें विशेषण-विशेष्य भावसे युक्त दण्ड और पुरुषको एक साथ प्रतीति होनेपर भी विशेषण-विशेष्य भावके नियममें कोई विरोध नहीं आता, वैसे हो 'दण्ड' इस शब्दसे होनेवाले ज्ञानमें भी विशेषण-विशेष्य भावसे युक्त दण्ड और पुरुष दोनोंको एक साथ प्रतीति होने पर भी विशेषण-विशेष्यके नियममें कोई विरोध नहीं आता-दण्ड विशेषण ही रहता है और पुरुष विशेष्य ही होता है । अतः जैसे 'दण्डी' शब्दसे दण्ड विशिष्ट पुरुषकी प्रतीति होतो है वैसे ही 'गो' शब्दसे गोत्वविशिष्ट गोपिण्डकी प्रतीति होती है। मीमांसक-'गो' शब्दके सुननेसे 'काली' 'चितकबरी' आदि विशेषोंकी प्रतीति नहीं होती, अतः विशेष शब्दार्थ नहीं है। जैन-'गो' शब्दसे काला आदि विशेषोंको प्रतीति नहीं होनेपर भी गोत्वजातिविशिष्ट गलकम्बल तथा ककुदवाले व्यक्तिको प्रतीति होती ही है। काला चितकबरा आदि विशेषोंको प्रतीति 'काला' 'चितकबरा' आदि शब्दोंसे होती है। किन्तु इससे सामान्य मात्र हो शब्दार्थ मानना उचित नहीं है, गोणत्व और प्रधानतासे जाति और व्यक्ति दोनोंकी प्रतोति होती है। 'गोको लाओ' इत्यादि प्रयोगों में सामान्यविशिष्ट व्यक्तिके साथ ही 'लाने' रूप क्रियाका सम्बन्ध प्रतीत होता है। अतः सामान्य विशेषात्मक वस्तु हो शब्दका अर्थ है । पहले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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