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________________ २५० जैन न्याय जो सामान्यविशिष्ट विशेषको अथवा जातिविशिष्ट व्यक्तिको शब्दार्थ मानते हैं उनसे हमारा प्रश्न है कि शब्द जातिको कहकर व्यक्तिको कहता है अथवा जातिका कथन किये बिना ही व्यक्तिको कहता है ? यदि शब्द जातिको कहकर व्यक्तिका कथन करता है, तो जातिरूप विशेषणको प्रतिपत्ति में ही उसकी शक्ति क्षीण हो जानेसे वह कभी भी व्यक्तिरूप विशेष्यका कथन नहीं कर सकेगा। यदि शब्द जातिको बिना कहे ही व्यक्तिका प्रतिपादन करता है तो केवल विशेष मात्रका कथन करनेसे जातिमद् वाचकत्वका अभाव ही हो जायेगा। शायद कहा जाये कि यदि शब्द सामान्य मात्रको ही कहता है, विशेषों ( व्यक्तियों ) को नहीं कहता तो शब्दसे प्रयोजनार्थी मनुष्यको प्रवृत्ति नहीं होगी, क्योंकि शब्दसे केवल सामान्य मात्रकी प्रतिपत्ति होगी और सामान्य मात्रसे प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता। किन्तु ऐसा कहना उचित नहीं है; क्योंकि सामान्य. की प्रतिपत्ति होनेसे विशेषोंकी भी प्रतिपत्ति होती है। पहले शब्दसे सामान्य मात्रकी प्रतीति होती है। पीछे सामान्यकी प्रतीति होनेसे लक्षणाके द्वारा व्यक्तिविशेषकी प्रतीति होती है। क्योंकि सामान्य व्यक्तिके बिना नहीं रहता । तथा सामान्यसे लक्षित व्यक्ति-विशेषकी प्रतीति होनेसे लक्षित लक्षणाके द्वारा प्रयोजनविशेषकी प्रतीति होती है। जैनोंका उत्तरपक्ष-जैनोंका कहना है कि सामान्यमात्रको हो शब्दका विषय मानना उचित नहीं है। संकेतके अनुसार ही शब्द वाचक होता है । और संकेत सामान्यविशिष्ट विशेषमें ही किया जाता है, न कि सामान्यमात्रमें । केवल सामान्य अथवा जाति न तो प्रवृत्तिका विषय है और न वह पानी भरना आदि किसी अर्थक्रियामें ही उपयोगी है, क्योंकि गौ, घट आदि व्यक्ति कार्यकारी है, गोत्व या घटत्व जाति कार्यकारी नहीं है । अत: केवल सामान्यमें शाब्दव्यवहार असम्भव है। और इसलिए उसमें संकेत ग्रहण करना व्यर्थ है । 'इस प्रकार के शब्दसे इस प्रकारका अर्थ समझना चाहिए। और इस प्रकारके अर्थमें इस प्रकारका शब्दप्रयोग करना चाहिए' संकेत करानेवाला व्यक्ति इस प्रकारसे सदृश परिणामसे युक्त वाच्य-वाचकमें ही संकेत ग्रहण कराता है। 'व्यक्ति अनन्त हैं, उन सबको ग्रहण करना शक्य नहीं है' इत्यादि कथन भो समुचित नहीं है। जैसे साध्यरूप व्यक्ति और साधनरूप व्यक्ति अर्थात् अग्नि और धूम अनन्त है फिर भी तर्कप्रमाणके द्वारा उन सबका ज्ञान हो जाता है । १. न्या० कु० च०, पृ० ५६८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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