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________________ परोक्षप्रमाण कहना उचित नहीं है । कारणसामग्रीका भेद होनेसे एक ही अर्थ में भिन्न-भिन्न प्रतिभासका होना देखा जाता है । जैसे एक ही वृक्षका प्रतिभास दूर देशवर्ती और निकट देशवर्ती मनुष्यों को विभिन्न रूपसे होता है वैसे ही शब्दज्ञान और प्रत्यक्षज्ञानका विषय एक होते हुए भी शब्द और इन्द्रिय आदि रूप सामग्रीका भेद होनेसे शाब्दज्ञान अस्पष्ट होता है और प्रत्यक्षज्ञान स्पष्ट होता है । अतः अन्धेको और आँखोंवाले मनुष्यको एक ही विषयका भिन्न प्रतिभास होता है । 'वाच्यवाचकभाव कार्यकारण भावसे भिन्न नहीं है' यह कहना भी ठीक नहीं है । क्योंकि बौद्धों की मान्यता के अनुसार शब्दोच्चारणके पश्चात् श्रोताकी बुद्धिमें जो प्रतिबिम्ब होता है, चूँकि वह शब्दजन्य है, अतः वह वाच्य है और शब्द उसका जनक होनेसे वाचक है । यदि कार्यकारण भाव और वाच्यवाचक भाव एक ही है तो श्रोत्रज्ञानमें प्रतिभासमान शब्द अपने प्रतिभासका कारण होता है अतः शब्द अपने प्रतिभासका भी वाचक हो जायेगा । तथा जैसे शब्द विकल्पका कारण है वैसे ही परम्परासे स्वलक्षण भी उसका कारण है, अतः कारण होनेसे स्वलक्षण भी वाचक हो जायेगा । अतः बौद्धों का अन्यापोहवाद समुचित प्रतीत नहीं होता । २४९ 9 शब्दार्थ के विषय में मीमांसकका पूर्वपक्ष -मीमांसक का कहना है कि शब्दों का विषय सामान्य विशेषात्मक वस्तु नहीं है, किन्तु सामान्य मात्र ही हैं । किसी एक व्यक्तिमें उस सामान्यको जानकर उसके द्वारा सर्वत्र संकेत किया जा सकता है । किन्तु विशेष शब्दका विषय नहीं हो सकता, क्योंकि विशेष अथवा व्यक्ति तो अनन्त हैं, उन सबको पूरी तरहसे ग्रहण करना शक्य नहीं है | अतः उन सबमें संकेत नहीं किया जा सकता । यदि जितने विशेषोंकी उपलब्धि हो उतने में ही संकेत ग्रहण माना जायेगा तो अन्य व्यक्तियोंमें संकेत ग्रहण न होनेसे शाब्दव्यवहार नहीं बन सकता । तथा जो असर्वज्ञ है वह क्रमसे अथवा युगपत् समस्त विशेषों ( व्यक्तियों ) को विषय नहीं कर सकता, अन्यथा वह असर्वज्ञ नहीं कहा जायेगा । रहा सर्वज्ञ, सो वह तो विवादग्रस्त है । और सब विशेष व्यक्तियों को ग्रहण किये बिना 'यह इसका वाचक है और यह वाच्य है' इस प्रकार वाच्य वाचक सम्बन्धका नियमरूप संकेत सम्भव नहीं है । और उसके अभाव में शब्द सुनने से अर्थका ज्ञान नहीं होगा । तथा ऐसा होनेसे शाब्दव्यवहारका उच्छेद हो जायेगा । अतः शाब्दव्यवहारको जो मानता है उसे सामान्य मात्र में हो संकेत ग्रहण मानना चाहिए। इस लिए सामान्य ही शब्दार्थ है । १. न्या० कु० च०, पृ० ५६६ । मी० श्लो०, आकृति०, श्लो० ३-४,१८, ६३ । तन्त्रवा० १।३।३३ | शास्त्र दी० १।३।३५ । वाक्यप० ३।३३ | ३२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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