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जैन न्याय
फिर भी यदि शब्द स्वरूपभेदसे भिन्न अपोहका कथन करता है, ऐसा ही आपका मन्तव्य है तो वह अपोह पर्युदास रूप है अथवा प्रसज्य रूप है ? यदि पर्युदास रूप है तो उसे भावान्तर स्वरूप ही मानना चाहिए। वह भावान्तर, विशेष है अथवा सामान्य है अथवा सामान्यसे उपलक्षित विशेष है, अथवा सामान्य
और विशेषका समुदाय है ? चारों ही पक्षोंमें शब्दका अर्थ विधि हो सिद्ध होता है, अपोह नहीं। यदि शब्द स्वरूपभेदसे भिन्न प्रसज्य रूप अपोहको कहता है तो शब्दका अर्थ केवल निषेध ही हुआ कहलाया। किन्तु यह ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसी प्रतीति नहीं होती। दूसरेको समझाने के लिए ही शब्दका प्रयोग किया जाता है। और दूसरा 'नील' को जानना चाहता है, न कि केवल अनीलके निषेध मात्रको। यदि समझानेवाला जिज्ञासाके प्रतिकूल अर्थका कथन करता है तो वह बुद्धिमान् सिद्ध नहीं होता । तथा यदि शब्द निषेध मात्रको कहता है तो 'नील' और 'कमल' शब्दका सामानाधिकरण्य नहीं बनता; क्योंकि नीलशब्द केवल अनीलका निषेध कहता है और 'कमल' शब्द अकमलका निषेध मात्र कहता है। ये दोनों निषेध एकधर्मीमें सम्बद्ध नहीं हो सकते, क्योंकि भावरूप धर्मी और अभावरूप अनील और अकमलका तादात्म्य आदि सम्बन्ध असम्भव है। तथा इन दोनों शब्दोंका विषय एकधर्मी भी नहीं है । 'अनिन्द्रिय' 'अनुदरा' आदि जिन शब्दोंमें 'न' लगा रहता है उन्हींका पर्युदासरूप अथवा प्रसज्यरूप अर्थ होता है । किन्तु 'गो' इसमें तो 'नम्' नहीं है तब 'अगो' का पर्युदास करके गौशब्दकी प्रवृत्ति कैसे हो सकती है ? गोका अर्थ तो विधिरूपसे ही प्रतीत होता है। अतः सामान्यविशेषात्मक वस्तु ही शब्दका विषय मानना चाहिए। प्रतीतिका अपलाप करना उचित नहीं है। वाच्य और वाचकका सम्बन्ध तर्क. प्रमाणसे प्रतीत होता है, सर्वत्र सम्बन्धको प्रतीति उसीके द्वारा होती है ।
बौद्ध-अतीत और अनागत अर्थके वाचक शब्द अर्थक अभावमें भी देखे जाते है; तब शब्दोंका अर्थके साथ प्रतिबन्ध कसे सिद्ध हो सकता है ?
जैन-हम सभी शब्दोंको अर्थका अविनाभावी नहीं मानते; किन्तु आप्तके द्वारा कहे हुए सुनिश्चित शब्दोंको ही अर्थका अविनाभावी मानते हैं। कुछ शब्द अर्थके व्यभिचारी देखे जाते हैं, इसलिए सब शब्दोंको अर्थका व्यभिचारी मान लेना उचित नहीं है, अन्यथा मरीचिकामें होनेवाला जलज्ञान झूठा होता है, इसलिए सत्य जलके ज्ञानको भी झूठा मानना होगा। अत: जैसे प्रत्यक्ष का विषय परमार्थ है वैसे ही शब्दका विषय भी परमार्थ है। दोनोंमें कोई भेद नहीं है। इसलिए 'इन्द्रिय प्रत्यक्षका विषय भिन्न है और शब्दका विषय भिन्न है' ऐसा
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