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परोक्षप्रमाण
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करता। अतः वह स्वाकारमें बाह्य अर्थका अथवा बाह्य अर्थमें स्वाकारका आरोप कैसे कर सकता है ? ___ यदि शब्द और लिंगसे केवल अपोहकी प्रतीति होती है तो सब शब्द पर्यायवाची हो जायेंगे; क्योंकि सभी शब्द केवल अपोहको कहते हैं। और ऐसा होनेपर विशेषण-विशेष्यका भेद, अतीत आदि कालभेद, स्त्री, पुरुष, नपुंसक आदि लिंगभेद, तथा एकवचन, द्विवचन, बहुवचन आदि भेद दुर्लभ हो जायेगा। तथा लिंग और लिंगीमें भी कोई भेद नहीं रहेगा; क्योंकि दोनोंका अर्थ केवल अपोह है।
बौद्ध-अपोहके भी भेद होते हैं, अतः उक्त आपत्ति ठीक नहीं है ?
जैन-तब यह बतलायें कि अपोहके भेद कैसे होते हैं ? अपोह्यके भेदसे अपोहके भेद होते हैं, अथवा वासनाके भेदसे अपोहके भेद होते हैं, अथवा भिन्न सामग्रीसे उत्पन्न होनेके कारण अपोहके भेद हैं, अथवा विभिन्न कार्य करनेसे अपोहके भेद हैं, अथवा आश्रयके भेदसे अपोहके भेद होते हैं, अथवा स्वरूप भेदसे अपोहके भेद होते है ? यदि अपोह्य अर्थोंके भेदसे अपोहके भेद मानते हैं तो 'सर्व' 'प्रमेय' आदि शब्द एकार्थवाची हो जायेंगे; क्योंकि सर्वराशिसे भिन्न 'असर्व' और समस्त प्रमेय राशिसे भिन्न 'अप्रमेय' तो कोई है नहीं, जिसके अपोहसे सर्व आदि सिद्ध हों। तथा ऐसी स्थितिमें बौद्ध मतमें प्रसिद्ध सत्त्व और कृतकत्व हेतु भी कैसे सिद्ध होंगे; क्योंकि बौद्धमतानुसार जगत्में न तो कोई असत् है और न कोई अकृतक है, जिसके अपोहसे सत्त्व आदि हेतु सिद्ध हों? अतः अपोह्यके भेदसे अपोहके भेद नहीं बनते । वासनाके भेदसे भी अपोहके भेद नहीं बनते । अनुभवभेद होनेसे ही वासनाभेद होता है। किन्तु जब अपोह एकरूप है तो अनुभवमें भेद कैसे हो सकता है ? भिन्न-भिन्न सामग्रोसे उत्पन्न होने के कारण भी अपोहमें भेद नहीं हो सकते; क्योंकि अपोह तो काल्पनिक है अतः सामग्रीविशेषसे उसकी उत्पत्ति ही नहीं बनती; क्योंकि जो काल्पनिक है वह किसीसे उत्पन्न नहीं होता। और यदि अपोह सामग्री विशेषसे उत्पन्न होता है तो वह कल्पित नहीं हो सकता। इसीसे विभिन्न कार्य करनेके कारण अपोहके भेद माननेका भी खण्डन हो जाता है; क्योंकि जो वास्तविक सत् नहीं है वह विभिन्न कार्य नहीं कर सकता, जैसे आकाशपुष्प । और यदि अपोह अनेक कार्य करता है तो उसे वास्तविक सत् मानना होगा। इसी तरह आश्रयभेद और स्वरूपभेदसे अपोहमें भेद नहीं बनता; क्योंकि जो अवस्तुरूप है उसका न कोई आश्रय होता है और न कोई स्वरूप होता है।
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