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जैन न्याय
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मानना उचित है । शाब्दज्ञानमें न तो प्रसज्यप्रतिषेध ( तुच्छाभावरूप ) का हो अध्यवसाय होता है और न स्वलक्षणका ही प्रतिभास होता है । किन्तु बाह्य अर्थst frश्चायक एक शाब्दी बुद्धि उत्पन्न होती है । अतः उसे ही शब्दार्थ मानना चाहिए। यह बौद्धका कहना है । तथा लोग जो शब्दका अर्थके साथ वाच्य वाचक भाव रूप सम्बन्ध मानते हैं वह भी वास्तवमें कार्यकारणभावसे भिन्न नहीं है; क्योंकि बुद्धिमें जो अर्थका प्रतिबिम्ब होता है, वह शब्दजन्य है इससे उसे वाच्य कहते हैं । और शब्दको उसका जनक होनेसे वाचक कहते हैं ।
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उत्तरपक्ष -- जैनों का कहना है कि सविकल्प बुद्धिमें जो अर्थाकार प्रतिबिम्ब उत्पन्न होता है उसे आप अन्यापोह मानते हैं । अब प्रश्न यह है कि वह प्रतिबिम्ब किसका है -- स्वलक्षण का अथवा सामान्यका ? वह स्वलक्षणका प्रतिबिम्ब तो नहीं हो सकता क्योंकि स्वलक्षण तो व्यावृत्ताकार है और प्रतिबिम्ब अनुगत एकरूप है । यदि वह प्रतिबिम्ब स्वलक्षणका है तो स्वलक्षणको भी अनुगत एकाकार ही होना चाहिए। यदि वह प्रतिबिम्ब सामान्यका है तो आप तो ( बोद्ध ) सामान्यको असत् मानते हैं, अतः असत्का प्रतिबिम्ब कैसे पड़ सकता है । यदि शब्दजन्य विकल्प केवल अपने प्रतिबिम्बका ही निश्चायक है तो उससे बाह्य अर्थ में प्रवृत्ति कैसे होगी ?
बौद्ध-- अनर्थ में अर्थका अध्यवसाय करनेसे बाह्य में प्रवृत्ति होती है । जैन -- अर्थाध्यवसाय से आपका क्या मतलब है ? यदि बाह्य अर्थके ग्रहण करनेको अर्थाध्यवसाय कहते हैं तब तो हमारा ही मत सिद्ध होता है; क्योंकि बौद्ध तो शब्दज्ञानको बाह्य अर्थका ग्राहक नहीं मानते । यदि विकल्प अपने आकारको बाह्य अर्थके साथ मिला देता है यह अर्थाध्यवसायका मतलब है तो यह भी ठीक नहीं है; क्योंकि ऐसी प्रतीति नहीं होती । शायद कहा जाये कि विकल्प अपने आकार में बाह्य अर्थका आरोप प्रकट करता है । किन्तु ऐसा कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि विकल्पाकार और बाह्य अर्थ, दोनोंका ग्रहण होनेपर ही एकका दूसरे में समारोप हो सकता है । अब प्रश्न यह है कि दोनोंको कौन ग्रहण करता है - सविकल्पक अथवा निर्विकल्पक ? निर्विकल्पक तो ग्रहण नहीं कर सकता; क्योंकि निर्विकल्पक तो केवल स्वलक्षणको ही विषय करता है अतः अन्यापोह रूप विकल्पाकारको वह विषय नहीं कर सकता। इसी तरह सविकल्पक भी दोनोंको विषय नहीं कर सकता; क्योंकि वह बाह्य अर्थको विषय नहीं
१. न्या० कु० च०, पृ० ५५७-५६६ । प्रमेयक० मा०, पृ० ४३२-४५० |
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