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________________ २४४ जैन न्याय शब्द और लिंगका विषय बाह्य अर्थ नहीं है। यदि बाह्य अर्थ शब्दका विषय है तो वह स्वलक्षणरूप बाह्य अर्थ है अथवा सामान्यरूप अर्थ है ? पहला पक्ष ठीक नहीं है। क्योंकि स्वलक्षणरूप अर्थ में संकेत ग्रहण नहीं किया जा सकता, अतः उसमें शब्दोंकी प्रवृत्ति नहीं होती। संकेत ग्रहण उसी में किया जा सकता है जो संकेतव्यवहारके कालमें मौजूद रहे। किन्तु स्वलक्षणरूप अर्थ तो एकक्षणवर्ती और निरंश परमाणुरूप होता है, अतः वह देशान्तर और कालान्तरका अनुसरण नहीं करता। क्योंकि विवक्षित देश और विवक्षित काल में जो अर्थ है वह अन्य है तथा देशान्तर और कालान्तरमें जो अर्थ है वह अन्य है। अतः ऐसे अर्थमें संकेत ग्रहण कैसे किया जा सकता है। तथा, 'यह शब्द इस अर्थका वाचक है' यह सम्बन्ध जिस ज्ञानमें प्रतिभासित होता है उस ज्ञानमें शब्द और स्वलक्षणरूप अर्थ प्रतिभासित नहीं होते; क्योंकि शब्द श्रोत्रेन्द्रियका विषय है और अर्थ चक्षुका विषय है। और जो जिस ज्ञानमें प्रतिभासित नहीं होते वह ज्ञान उन दोनोंका सम्बन्ध नहीं कर सकता। जैसे गो शब्द और गौ अर्थके सम्बन्धज्ञानमें अश्व शब्द और अश्व अर्थका प्रतिभास नहीं होता अतः वह ज्ञान उन दोनोंका सम्बन्ध नहीं करा सकता। इसी तरह चक्ष और श्रोत्र इन्द्रियजन्य ज्ञान में प्रतिभासमान होनेवाले अर्थरूप स्वलक्षण तथा शब्दका 'यह इसका वाचक है' इस सम्बन्धकारी ज्ञान में प्रतिभास नहीं होता । दूसरे, जिस शब्दका जिस अर्थके साथ सम्बन्ध निर्धारित नहीं हुआ है, वह शब्द उस अर्थका ज्ञान नहीं करा सकता। जैसे गोशब्दका अश्व अर्थ के साथ सम्बन्ध नहीं है, इसलिए गोशब्द अश्वका ज्ञान नहीं करा सकता। इसी तरह स्वलक्षणरूप अर्थके साथ किसी भी शब्दका सम्बन्ध नहीं है । अतः शब्दसे स्वलक्षणरूप अर्थका बोध नहीं हो सकता। यदि शब्दज्ञान स्वलक्षणको विषय करता है, तो इन्द्रियजन्य ज्ञानको तरह ही शाब्दज्ञान भी स्पष्ट होना चाहिए, किन्तु ऐसा नहीं है । और ऐसा भी नहीं है कि एक वस्तुके स्पष्ट और अस्पष्ट दो रूप हों, जिससे शब्दज्ञानमें वस्तुगत रूपका ही प्रतिभास' हो । अतः स्वलक्षण रूप अर्थ शब्दका विषय नहीं हो सकता । सामान्यरूप अर्थ भी शब्दका विषय नहीं है क्योंकि वास्तविक.सामान्य हो असम्भव है। और असम्भव वह इसलिए है कि वह खर विषाणकी तरह अर्थ १. तत्त्वसं० ५०, पृ० २८१ । अपोहसिद्धि, पृ० ७ । २. प्रमाणवा० स्ववृ० ११६५ । Jain Education International For Privatè & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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